बुधवार, 12 मार्च 2008

पालने में झूलता एक माँ का टुकडा

दोस्तो कहते हैं किसी भी इन्सान को एक ही जन्म मिलता है,चाहे कुछ भी क्यों न करना हो,बड़े बुजुर्ग कहते हैं ,इन्सान अगर चाहे तो इस एक ही जन्म मी बहुत कुछ कर सकता है,नए नए आयाम स्थापित कर सकता है,पर क्या माँ के कर्ज को भी चुका सकता है,शायद नहीं,कभी नहीं,चाहे इन्सान एक से भी अधिक जन्म ले ले. पर माँ जो होती है दुनिया की सबसे stipid प्राणी होती है,उसे कुछ नहीं चाहिए होता है अपने लाल से,बच्चा कितना भी बदमाशी करे,कितना भी तंग क्यों न करे माँ हरदम उसकी हर एक बदमाशी को अपने आँचल से ढक लेती है, कितनी अजीब होती है माँ,पर जब वही बच्चा चला जाता है तो माँ पर क्या गुजरती है........ आज मेरे दोस्त अश्वनी की कविता मैं प्रकाशित कर रहा हूँ,जो माँ के इसी दर्द को बयां करती है.

पालने में झूलता एक माँ का टुकडा
इन सितारों से है आया एक फरिश्ता
जिसके दिल से बन गया है दिल का रिश्ता
सोचती है उसको कोई कष्ट न हो
रूठे सारी दुनिया पर वो रुष्ट न हो,
अपने जीवन का समझती है सहारा,
यही है बुढापे की लाठी,
राजदुलारा सूर्य से भी तेज है ये प्यारा मुखड़ा
पालने में झूलता......
उसकी हर एक जिद को मंजूर करती थी
भूखी रहती थी पर उसका पेट भरती थी
सोचती थी रोशन ये मेरा नाम करेगा
उसे क्या पता था वो बुरे काम करेगा
सारा सपना टूट कर अब चूर हो गया
माँ का टुकडा माँ के दिल से दूर हो गया
उखडी उखडी साँसे हैं और मन भी उखडा
पालने में झूलता..........................
आंसुओं के धार को वह पोंछती है
उसकी मैय्यत में खड़ी अब सोचती है
काश! फिरसे झूलता उस पालने में
कितनी मेहनत कर दी उसको ढालने
में काश! उसके दिल में कोई पाप न हो
पालने में ही रहे कभी खाक न हो
यह तमन्ना थी या है एक माँ का दुखडा
पालने में झूलता..............
अश्वनी कुमार गुप्ता

सोमवार, 10 मार्च 2008

मेरी माँ

पैदा भी नहीं हुआ था, तबसे मुझे जानती है मेरी माँ,बताती हैं नानी-दादी छींक से पहले ही नाक पोंछ देती थी,दर्द हो मुझको तो वो रात भर रोती थी,बोझ मेरे सर का उठती थी, मेरी माँ
होश आया तो देखा,ख़ुद जागकर मुझे सुलाती है,पेट भरे न उसका मुझे पेट भर खिलाती है,मेरी माँ
फटे चिथदों से चलें काम उसका,मुझे राजकुमार सा सजाती है,मेरी माँ कभी आंधी कभी तूफ़ान,कभी बाढ़ कभी सूखा,तंग हालातों में भी खुशियाँ झल्काती है, मेरी माँ
कुछ बड़ा हुआ,अपने पैरों पर खड़ा हुआ....देखाहम हो सकें काबिल,खातिर इसकीअपना अस्तित्व भी भुला चुकी है,मेरी माँ
अब मैं अच्छा बुरा समझता हूँ,अपने हितों के लिए दुनिया से लड़ता हूँ,फ़िर भी मैं खुश रहूँ,खातिर इसकीमत्थे टेकती रहती है,मेरी माँ
याद आती है बचपन के जन्नत, और परियों की कहानी,तो पाता हूँ,वही तो थी,मेरी माँ
माँ! मैं आज तुमसे दूर हूँ,तेरे आँचल को महरूम हूँ,फ़िर भी तेरी स्नेहिल छाया मानो जादू की झप्पी देने आ जाती है,चाहूँ न चाहूँ तेरी कमी तदपा जाती है
जी करता है तुझे धन्यवाद करूँ,तेरे चरणों मे गिरकर दो आंसू धरूँपर...कहीं तू अपमानित तो नहीं होगी,तेरी महिमा कहीं खंडित तो नहीं होगी
माँ! आज मैं बहुत परेशान हूँ,दुनिया के झमेले में खड़ा अकेला हैरान हूँ,बता मैं क्या करूँ?चाहता हूँ रो पडूं,पर मन्नौअर कहते हैं -माँ के सामने रोया नहीं करते साहिल,जहाँ बुनियाद हो वहाँ नमी अच्छी नहीं होती
माँ! आज मैं सोंचता हूँ तो अचंभित हो जाता हूँ,कितना दुष्कर है इंसान का दैवीय हो जाना,जैसी तुम हो,मेरी माँअब भी तेरे स्नेह का भूखा,तेरा लाल, मेरी माँ