शनिवार, 31 मई 2008

एक वाकया,कुछ अजीब सा

एक वाकया,कुछ अजीब सा
पिछले दिनों एक प्रवेश परीक्षा का फॉर्म जमा करने जाना था।चूँकि फॉर्म दिल्ली में ही जमा करना था,इसलिए अल्हदिपने में ढेरों दिन आज कल करते हुए कट गए।पर उस दिन तो फॉर्म जमा करने का अन्तिम दिन था,ये सोचकर अपने अल्हादी मन को थोड़ा समझाया और चल दिया फॉर्म जमा करने।एक तो अन्तिम दिन और उपर से समय भी ४ बजे तक तो बेचैनी तो होनी ही थी।
खैर,नहा धोकर तैयार हुआ,माता जी के तस्वीर को नमन किया और निकल पड़ा।रिक्शा पकड़ा और मेट्रो के लिए बढ़ लिया(actually,आजकल दिल्ली का बड़े शानदार तरीके से विस्तार हो रहा है,यहाँ low floor buses चलने लगी हैं,मेट्रो ने भी अपना जाल फैलाना शुरू कर दिया है।जो भी दिल्ली आता है,उसकी एक ख्वाहिश यह जरुर रहती है कि कम से कम मेट्रो में तो चधेंगे ही।वो जी,हम तो दिल्ली में ही रहते हैं तो भला ये सुनहरा मौका क्योंकर छोड़ देते(असल में इतना अल्हादी हूँ कि महीने २ महीने में एक आध बार ही अपने मोहल्ले से निकल पाता हूँ))।हम मेट्रो पकड़ने कि ताक में रिक्शे की सवारी कर रहे थे यद्यपि मेरे कमरे के सामने से ही बसें वहाँ तक जाती हैं जहाँ तक मुझे मेट्रो से जाना था।लेकिन भाई,मेट्रो की तो बात ही कुछ और है )।रिक्शा अभी कैंप पहुँचा(बताते चलें कि कैंप एरिया में मेट्रो का निर्माण कार्य चल रहा है।मेट्रो वालों ने ६० फीट के सड़क को टीन की दीवारों से घेरकर १६ फीट का कर दिया है।)
जी हाँ तो हम कैंप पहुंचे ,सुबह का समय था,भयंकर भीड़,स्कूली बच्चों को ले जाने वाली छोटी बड़ी गाडियाँ,रिक्शे,आफिस जाने वालों की भीड़ और तफरी करने वाले ढेरों लोग(actually,भीड़ में देखने को शानदार चीज़ें मिल जाती हैं,सभी आयुवर्ग के लिए )।अब तो हम भी अपने रिक्शे सहित भीड़ में हो लिए थे.दांये बांये कि संकरी सडकों (टीन कि घेरेबंदी के कारण ) पर गाड़ियों का हुजूम,एक तरफ़ हम थे और बचे अन्तिम तरफ़ का हाल भी काफ़ी कुछ हमारे जैसा .
अच्छा खासा शोरगुल था।कहीं पी पी....कहीं टें टें...तो कहीं खर्र खर्र... और कभी कभी हमारे जैसे पढे लिखे बुद्धिजीवियों(जो जाम में फंसे थे) द्वारा मर्यादित भाषा में वेदवाक्यों का वाचन,पूरा माहौल भक्तिमय था।ऐसे में मानो red light ने भी अनशन कर रखा था कि अनशन तभी तोड़ेंगे जब दिल्ली की पूरी जनता मेट्रो में सफर करने लगेगी।
जैसाकि मैंने कहा,बहुत देर हो रही थी,सोंचा कि चलो,चलती सड़क को ही पार कर लेते हैं।रिक्शे वाले को १० का नोट थमाया और हीरो की माफिक भीड़ को चीरते हुए आगे निकल आए,मुझे देख कुछ और युवाओं को भी अपनी जवानी का एहसास हुआ(बता देना जरुरी है कि मैं भी अच्छा खासा जवान हूँ,अब कृपा करके "अच्छे खासे" का मतलब मत पूछिएगा)।आखिरकार हमलोग देश के भविष्य है,जब पी एम्, सी एम् के लिए यातायात ठप हो सकता है तो हमारे लिए क्यों नहीं।आगे पीछे देखते हुए हम बीच सड़क पर पहुंचे।तब तक दाहिने से एक कार हमारी तरफ़ बढ़ी,सच कहें तो एक पल के लिए वीरगति प्राप्त करने टाइप की फीलिंग होने लगी थी,संयोग से ड्राईवर समझदार था,मेरे फौलादी जिस्म से पंगा न लेते हुए,स्टाइलिश अंदाज में कट मारते हुए आगे बढ़ गया(ज़माने बाद मुझे अपनी जवानी का एहसास हुआ)।अभी यह हुआ ही कि एक रिक्शा तेजी से मेरी तरफ़ बढ़ा,मेरा जोश उमड़ पड़ा,सनी दयोल अन्दल में आंखों में खून लिए उसकी तरफ़ अपना हाँथ उठाया तो बेचारा रिक्शा वाला चोंईई...ई....की आवाज के साथ रुक गया(जैसे पल्सर में डिस्क ब्रेक लगाने पर होता है)।
इतने में ही red light महोदय वादा खिलाफी करते हुए अपना अनशन तोड़ दिए।बड़ी विडम्बना,एकाएक आगे और पीछे का अथाह भीड़ अपने वाहन समेत सड़क को रौंदने टूट पड़ा(जैसे गुड के टुकड़े पर भुक्खड़ छींटे चारों तरफ़ से जूझते हैं)। बड़ी मुश्किल हुई,हम तो बुरे फंसे। अचानक एक मोहतरमा(२३,२४ की रही होंगी) पीछे से हार्न मारते हुए अपनी स्कूटी दौडा दीं,आगे रिक्शा वाला था,तेजी इतनी थी कि balence बिगड़ गया और उन्होंने रिक्शे को टक्कर दे मारी।फ़िर क्या था,स्कूटी एक तरफ़ गिरी और मोहतरमा दूसरे तरफ़।गनीमत यह रही कि घटना होते ही आने जाने वाले लोग जहाँ के तहां थम गए(दिल्ली जैसे सभी शहर में ऐसा कम ही होता है)।शायद बहुत सारी चीजों का साक्षी बनते बनते रह गया ।मेरी तो साँसे ही मानो थम गई थीं। इधर स्कूटी और रिक्शे के बीच में फंसे हमारे एक युवा साथी बीच सड़क चारों खाने चित हो गए,लेकिन तुरंत अपनी मर्दानगी का ख्याल करते हुए फुर्ती से उठे और दांये बांये देखे बगैर आगे हो लिए।
मेरे लिए भी मौका था,मैं एक सभ्य और जिम्मेदार शहरी की भांति सीन से गायब हो गया। शायद मोहतरमा को गंभीर चोट आई होगी,पर समय किसके पास था(और वैसे भी रह कर भी क्या कर लेते?उल्टे दो चार मासूम हाँथो के भागी बनते)। हमे तो फॉर्म जमा करना था।
इस हादसे से मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ा,हाँ एक बात जरुर हुई तत्क्षण मेरा मेट्रो से जाने का मोह भंग हो चुका था और मैं बस में बैठे बैठे मोहतरमा के बारे में सोंच रहा था,कैसी होगी बेचारी?(अरे भाई,व्यस्त हुआ तो क्या हुआ,इंसानियत मेरे अंदर भी है)।
खैर,इन सब के बावजूद मैं अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम से ३,४ मिनट की देरी से था(इंडिया में ३,४ मिनट का मतलब कुछ नहीं होता,यहाँ तो कोई भी कार्यक्रम ३,४ घंटे से कम देरी से शुरू ही नहीं होता)।

आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 30 मई 2008

हद है शराफत की,कि.....

हद है शराफत की,कि.....

मुझे जहाँ तक याद है,शायद मई २००५ की २९ तारीख थी।फ़िल्म काल का फर्स्ट डे,फर्स्ट शो था,मैं ब्लैक टिकट लेकर फ़िल्म देखने पहुँचा।क्रेज जो इस फ़िल्म से जुडा था कि इसमे मेरे शाहरुख़ ने डांस(आईटम) किया है।खैर,फ़िल्म शुरू हुई,फ़िल्म के शुरुआत में ही शाहरुख़ ने जालीदार बनियान में जो धमाल मचाना शुरू किया तो मैंने अपना माथा पीट लिया,सच कहूँ तो मैं बहुत आहत हुआ था।
"क्या रे शाहरुख़,कितना गन्दा दिख रहा है तू?" यही बात मेरे मन में आई थी।तब मैं शायद उतना परिपक्व नहीं था, बाद में महसूस हुआ(कुछ दोस्तों ने बताया)।ऐसा नहीं कि उसके पहले किसी हीरो ने ऐसा नहीं किया था,सलमान आदि का पेशा ही इसपर चलता था,पर बात थी पूरे देश के सबसे पारिवारिक और चहेते चेहरे की।जिसपर हर परिवार आँख मूंदकर विश्वास करता था।
इसके बाद समय चक्र बढ़ता गया,अब सलमान,शाहरुख़ ही नहीं कुछ एक को छोड़कर आजकल का लगभग हर हीरो ऐसा करने लगा है।
बात असल यह नहीं है की आजकल के हीरोज फिल्मों में आईटम करते हैं,बात कुछ और है,पहली यह कि क्या आजकल के फिल्मकार फ़िल्म बेचने के सहज तौर तरीके भूल गए हैं?दूसरी ये कि क्या आजकल के फ़िल्म स्टार अपनी अदाकारी के बूते पैसा और शोहरत कमाने में नाकाम होने लगे हैं?
शायद इसका जवाब नकारात्मक ही होगा।तो फ़िर क्यों?
आप कहेंगे कि पहले की फिल्मों में भी आईटम होता था,तो वे मूलतः हीरोइनों पर फिल्माए जाते थे,कारण कि आज भी बालीबुड की ९५ फीसदी फिल्मों में हीरोइनों के लिए नाचने गाने और शरीर दिखाने के अलावा कुछ नही होता,तो उनके रोजी रोटी की बात समझ में आती है।पर क्या मज़बूरी है हमारे स्टार हीरोज की? वे तो पहले ही फिल्मों से करोड़ों कमा रहे हैं।
तर्क दिए जा सकते हैं की वे वही करते हैं जो लोग देखना पसंद करते हैं,सिर्फ़ यही बिकता है।मैं इससे सहमत नहीं हूँ,क्योंकि अगर ऐसा होता तो दीनो मोरिया टाइप के हिरोज की सभी फिल्में ब्लास्टर हिट होतीं।अजी दर्शक भी तो वही देखेगा न जो उसे दिखाया जाएगा।
शायद आजकल के हिरोज ख़ुद को सबकुछ करते देखना चाहते हैं।यही कारण है कि उन्होंने अपनी मर्यादा और दर्शकों की भावनाओं का जमकर दोहन करना शुरू कर दिया है।क्योंकि वे रील के हीरो हैं रियल के नहीं।गलती आम दर्शकों की है जो हीरोज से बड़ी बड़ी अपेक्षाएं रख लेते हैं।पर
क्या इन अपेक्षाओं की सजा इतनी भयंकर कि अपने पसंदीदा स्टार को नंगी छोकरियों के बीच में तलाशना पड़े?
हद है शराफत की,कि नाम ही शराफत है....

आलोक सिंह "साहिल"

क्यों ना मैं पत्रकार बन जाऊँ

Tuesday, 13 May 2008
क्यों ना मैं पत्रकार बन जाऊँ
बहुत भाता मुझे नेताओं के पीछे मंडराना
चाहता हूँ मैं भी किसी के बेडरूम की फिल्में बनाना
क्रिकेट भी जानता हूँ,
खली को भी पहचानता हूँ,

भाते हैं मुझको राखी के नखरे,
करते हैं तंग क्यों मल्लिका को छोकरे,
भूत प्रेत के ढेरों मंतर हैं आते,
सेक्स के सीडीज मुझको भी भाते पसंद है
मुझको भी करना कास्टिंग काउच
बेंच सकता हूँ ख़बरों को
लगाकर नमक मिर्च
कर सकता हूँ
मैं भी फर्जी स्तिंग्स
तो क्यों न मैं पत्रकार बन जाऊं

शिल्पा से योग के राज पूछना चाहता हूँ ,
करीना और सैफ के
पीछे पीछे भागता हूँ काले
हैं क्यों बाबा रामदेव के बाल?
पिटती जब कैट तो मचता क्यों बवाल?
गुस्से में तनु क्यो होती है लाल?
आते हैं मुझको ऐसे ढेरों सवाल
टू बन जाऊँ मैं भी खोजी पत्रकार

धोनी के बाल क्यों लगते हैं सेक्सी?
यूवी को दीपिका ने पहनाई क्यों टोपी?
गिल को गिल से क्यों है ऐतराज?
दफ़न हैं ऐसे ही ढेरों दिल में राज
किसका है तुमको अब इन्तजार?
अब तो बना दो न मुझको पत्रकार

आलोक सिंह "साहिल"