सोमवार, 30 जून 2008

एक नज्म...आपके नाम..

एक नज्म...आपके नाम॥
अब तो आ जा, बहुत तडपाती है तेरी दूरी।
सहरा में चलते चलते प्यास तो लग ही जाती है।
या खुदा काश! वो दिन भी कभी आ जाए,
कारवां आपका मेरे भी रूह में ठहरे।
कह न पाए अब तलक जो लब मेरे,
बात वो मेरी नजर कह गुजरे।
धीरे धीरे आप पर भी हो असर,
जिस गम-ए-इश्क से हैं हम गुजरे।
बिन पिये ये कैसा नशा है साकी?
बन के शैदा वो मेरे ही कातिल निकले.

आलोक सिंह "साहिल"

मंगलवार, 24 जून 2008

आज मैं बाईस का...अलविदा...

आज मैं बाईस का...अलविदा... हरबार की तरह इसबार भी कुछ आशाओं,कुछेक निराशाओं ,कुछ अजीज सफलताओं तो कुछ क्षणिक विफलताओं के पुलिंदे को गट्ठर बनाकर जब अपने यादों के पिटारे में डालने के लिए उसे खोला तो पाया सभी पुलिंदों ने अपने चेहरों पर मुस्कराहट सजा रखी है.पता नहीं उनकी मुस्कराहट क्या बयां कर रही थी?शायद यही कि बेटा खुश हो ले,आज तूने एक और साल खो दिया. यह बात मन में आते ही मैंने विरोध करना चाहा,कि नहीं...नहीं....मैंने खोया नहीं बल्कि..इसे जिया है,तब तक बहुत देर हो चुकी थी.पिटारा ख़ुद बखुद बंद हो चुका था.शायद अगले साल खुलने की तयारी करने. खैर,थोड़ा तस्कीन से जब सोंचने बैठा तो तमाम उमंगें जवां होने लगी,शायद सफलता की कुछ बहुप्रतीक्षित इबारतें इसबार लिखी जायें.पर फ़िर भी मैं ख़ुद को किसी एक बात पे संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं खुश हूँ या उदास?अब बात ये भी है कि खुशी किस बात की?या उदासी का क्या सबब हो सकता है? एक बड़ी खुशी जो हो सकती थी वो तो पिछली बार ही पिटारे में पहुँच चुकी थी तब मैं वयस्क हुआ था. आज रह रहकर वो पल मुझे गुदगुदा रहे हैं,जब मैं २१ का हुआ था.तब मैं खासा प्रसन्न था वरन उससे अधिक उत्साहित था.बचपन से ही मन में फैन्तेशी थी कि कब मैं बड़ा होऊं और बड़ों के बड़े बड़े काम बेझिझक कर सकूँ? मैं अपने घर में सबसे छोटा हूँ तो शायद इसलिए भी यह ग्रंथि मन में थी कि अब मैं बच्चा नहीं हूँ बड़ा हूँ.कोई चाहकर भी मुझे बच्चा नहीं कह सकेगा. पर आज मैं दुखी हूँ,मुझे मेरा बचपन आज बहुत आकर्षित कर रहा है,रह रहकर मुझे चिढा रहा है.अब मैं पहले जितना आजाद नहीं रहा.तमाम जिमेदारियां,तमाम चिंताएँ.जी करता है सारी मर्यादाएं तोड़कर एकबार फ़िर अपने शुरूआती पुलिंदों में खो जाऊँ.पर मर्यादाविहीन होकर भी जिया जा सकता है क्या...? शायद तब मैं यह नहीं सोंचता था,क्योंकि मर्यादा नामक चीज तब मेरे पल्ले ही नहीं पड़ती थी. पर धीरे धीरे इस एक साल में मैंने हकीकत के साथ समझौता कर लिया है ( इंसानी जिंदगी में कितने ही समझौते करने पड़ते हैं,काश हम angel होते!!)जान लिया कि यही सच्चाई है और इसी के साथ जीना है.जीना है उसे जिसे हम जीवन कहते हैं.दुहाई हो ऐसे जीवन की. अब तो घंटी बज चुकी है.मेरे प्रिय पुलिंदे, तुझे जाना ही होगा क्योंकि अब कोई और तेरी जगह लेने को बेकरार है.न चाहते हुए भी तुझसे अलविदा कहना पड़ेगा,क्योंकि चाहते हुए भी तुझसे मिलने का वक्त नहीं निकल पाउँगा,क्योंकि जन्दगी में रिवर्स प्रोसेस नहीं होता.मैं कोशिश करूँगा कि इस नए वाले के साथ ताल्लुकात अच्छे बना सकूँ और कभी क्षणभर के लिए ही सही ख्यालों और कल्पनाओं में ही सही तुझसे गलबहियां कर सकूँ. खुशी है कि आज तक तूने हर वक्त मुझे हंसने और खुश होने का मौका दिया,बदले में मैंने भी तुझे बेपनाह प्यार किया.तुम मुझे ग़लत न समझना क्योंकि धन्यवाद कहकर तुझे शर्मिंदा नहीं कर सकता.अरे.............मैं किस्से बात कर रहा हूँ?तू तो कबका पिटारे में जा चुका है.ओह...तेरी यादें...कमबख्त...अलविदा अलविदा अलविदा....... शेर मेरे कहाँ थे किसी के लिए, मैंने सबकुछ लिखे थे तुम्हारे लिए. अपने सुख दुःख बड़े खुबसूरत रहे,हम जिए भी तो एक दूसरे के लिए.
आलोक सिंह "साहिल"

सोमवार, 23 जून 2008

हमारी हिन्दी और डोपिंग... बदलती हुई दुनिया के साथ कदमताल मिलाने के चक्कर में हमने पश्चिमी सभ्यता को इस तरह अपनाना शुरू कर दिया कि,अब दूर से ही हमसे पश्चिम की बू आने लगी है.यूँ कहें,हम ख़ुद ही आधे अधूरे पश्चिमी हो गए हैं. बात हमारे पहनावे की हो,खान पान की आदतों की या फ़िर हमारी भाषा की,हर लिहाज से हम बिचबिचवा(दोयम) पश्चिमी लगते हैं. बात भाषा की- हैं तो हम मूलरूप से हिन्दीभाषी,पर अंग्रेजी की डोपिंग(मिलावट) इस कदर हो गई है कि यह समझ पाना मुश्किल हो चला है कि अमुक व्यक्ति हिन्दी बोल रहा है या अंग्रेजी?चलिए,एक अच्छी सुविधा तो हुई,नई भाषा के लिए नया नामकरण,"हिंग्रेजी" किसी भी भाषा को ग्राह्य बनाने के लिए डोपिंग समझ में आती है पर ऐसी भी क्या की मूल भाषा ही धूंधनी पड़ जाए. इसे एक उदहारण से समझा जा सकता है,ग्वाले(दूध बेचने वाले) भाईयों का जन्मसिद्ध अधिकार है दूध में पानी मिलाना,यह बहुत कुछ वैसा ही जैसे नेताओं द्वारा घोटालों को अंजाम देना.जी हाँ,तो पहले के ग्वाले दूध में पानी मिलाते थे पर आधुनिक कल्चर में ख़ुद को ढालते हुए आजकल वे पानी में दूध मिलाने लगे हैं. तो बात स्पष्ट है,पहले हमारी हिन्दी को अधिक लोकप्रिय और ग्राह्य बनाने के लिए उसमें अरबी,फारसी,उर्दू,पोश्तो आदि के साथ अंग्रेजी भी मिलाया जाने लगा पर अब तो लगता है कि एक सिर-पूंछविहीन खिचडी भाषा को और रोचक व् मसालेदार बनाने के लिए उसमें हिन्दी भी मिला लिया जाता है,सनद रहे,नाम फ़िर भी हिन्दी ही रहता है. हिन्दी की बात चल रही है तो एक घटना यद् आ रही है.आस्ट्रेलियाई क्रिकेटर ब्रेट ली ने अपने भारत प्रेम को और अधिक पुख्ता करने के लिए यहाँ की प्रचलित भाषा हिन्दी सीखने के लिए बहुत दिनों महीनों तक मेहनत की पर असफल रहे.एक पत्रकार ने जब उनसे इस बाबत पूछा तो उनका जवाब था-"यार,मैं आजतक हिन्दी नहीं सीख पाया.यहाँ के लोग हिन्दी बोलते ही कहाँ हैं?हिन्दी में तो अधिकतर अंग्रेजी ही रहती है.सीखूं तो सीखूं कैसे?" बात अब पहले से अधिक स्पष्ट हो चुकी होगी.तो अब समस्या यह है कि आख़िर वजह क्या है, तो कहीं न कहीं यह हमारी अमेरिकी या यूरोपीय न होने की कुंठा में ही निहित है(हम भारत में क्यों जन्मे?हम औरों से बेहतर हैं.जाने किससे....?). मैं मानता हूँ कि किसी भी भाषा के विकास के लिए उसका अपभ्रंशित होना कहीं न कहीं फायदेमंद होता है,पर ऐसा भी क्या अपभ्रंश कि हमारी हिन्दी का अंश भी तलाशना मुश्किल हो जाए.
आलोक सिंह "साहिल"

शनिवार, 21 जून 2008

दस का दम,...पानी फ़िर भी कम...

दस का दम:शोर पुरजोर पर पानी फ़िर भी कम
भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया का यह शैशवकाल है,इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता है।इस अवस्था में वृद्धि बहुत तेजी से होती है,तमाम आयामों में विस्तार भी द्रुतगामी होते हैं.पर दुर्भाग्य से उस वक्त आप यह नहीं तय कर सकते कि विस्तार किस दिशा में हो,बस विस्तार हो जो कि हो रहा है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया में,बात करें मनोरंजन के चैनलों की तो सालों तक सास-बहू के झमेले दिखाने और इससे पैसे बनाने के बाद उनको हिट होने का एक नया शिगूफा मिल गया है,reallity shows.कभी बिग बी ने लोगों को करोड़पति बनाया(लोग बने या न बने,ख़ुद दिवालियेपन से उबरकर अरबपति बन गए.) तो कभी किंग खान ने गद्दी हथियाई.कभी गोविंदा तो कभी संजू. कभी कोई तो कभी कोई. इन दिनों स्टार वालों ने शाहरुख़ को लेकर "क्या आप पांचवीं पास से तेज हैं?"शुरू किया तो बालीबुड के दूसरे खान यानि हमारे सल्लू मियां ने भी कमर कस ली,उनका साथ दिया सोनी इंटरटेनमेंट वालों ने,और साथ ही दिया हर एपिसोड के तकरीबन एक करोड़ रुपये,नाम रखा "दस का दम". चूँकि,इसके माध्यम से सलमान पहलीबार छोटे पर्दे पर उतर रहे थे तो दर्शकों में रोमांच भी बहुत था कि कोई explosive package ही होगा.धीरे धीरे इसके प्रोमो ने टीवी चैनलों पर अपना जलवा दिखाना शुरू किया.लोगों को लगा ओजी,ये तो बम है.तरह तरह से इसको प्रचारित प्रसारित किया गया.कभी सल्लू बनियान में दिखते तो कभी माथे पर सब्जी लिए. खैर,वह शुभघड़ी (शायद) भी आ गई जब "दस का दम" का पहला एपिसोड दर्शकों के सामने परोसा गया.हमने भी अपने चश्मे को दुरुस्त करते हुए नजरें टीवी पर गडा दीं,क्योंकि हम नहीं चाहते थे कि इस कार्यक्रम का कोई भी पहलू हमसे छुट जाए.पर ये क्या?इसमें तो केवल शोर ही शोर है.भौंडे सवालों और घटिया व् बेशर्म जवाबों की भरमार है.बुरा लगा,पर क्या करें,अब सलमान से इससे अधिक की अपेक्षा करना भी बेमानी ही है. यही क्या कम है कि बेचारा अपनी reallity को छोटे परदे पर भी कायम रखा? बेचारे चैनल वाले भी क्या करें?उन्हें भी तो भेंडचाल में ख़ुद को बनाये रखना है.आख़िर ये उनके अस्तित्व कि लडाई जो ठहरी.वैसे भी उनका दबाव समझा जा सकता है.किसी एक दिन के ६,७ घंटे के लिए डेढ़ दो-करोड़ रुपये खर्च करना मायने रखता है.अब इतना खर्च करने पर इसकी भरपाई भी तो होनी ही चाहिए.यही कारण है कि अश्लील भाषा से लेकर अश्लील हरकतें(तथाकथित माडर्न भाषा शैली.) तक सभी कुछ झोंक दिया पर फ़िर भी पानी कम. सच कहें तो टीआरपी की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में और कुछ हुआ हो या न हुआ हो पर मनोरंजन नामक बला की बुरी तरह बज चुकी है.टीआरपी के नाम पर सब जायज है.अब ख़ुद मनोरंजन को भी ख़ुद पे शर्म आती होगी कि वह कितने ही चैनलों और स्टारों के मानसिक दिवालियेपन की वजह बन बैठा. इस कार्यक्रम में सबकुछ रखा गया जो की किसी कार्यक्रम के हिट होने के लिए अपेक्षित है फ़िर भी देखने के बाद यही लगा... दस का दम:शोर पुरजोर पर पानी फ़िर भी कम...

आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 20 जून 2008

राजनीति की सलीब...

राजनीति की सलीब... पिछले दिनों भारत की दूसरी बड़ी राजनितिक पार्टीभाजपा के राष्ट्रिय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने संवैधानिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष शब्द की वैधानिकता पर सवाल खड़ा कर दिया। थोड़ा मूल में चलें तो,जब नवम्बर १९४९ को हमारे स्वतंत्र देश भारत का संविधान बनकर तैयार हुआ तो इसकी प्रस्तावना (preamble) में मूलरूप से भारत को एक प्रभुसत्ता संपन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य(sovereign,democratic,republic) का दर्जा दिया गया।संविधान सभा के अध्यक्ष बाबा साहब डाक्टर भीमराव अम्बेडकर ने भी कहा था "इसे संविधान की आत्मा समझा जाय,किसी अनुच्छेद के लिए कोई भ्रम हो तो उसे संविधान की प्रस्तावना के परिप्रेक्ष्य में देखकर निर्णय लिया जाय।" परंतुहमारे देश के रहनुमाओं ने इसे अपने फायदे के अनुसार उलट पलट कर इस्तेमाल किया।सन १९७६ में इंदिरा गांधी की सरकार ने ४२ वाँ संविधान संशोधन करके संविधान की मुल्प्रस्तावाना में secular और socialist शब्द जोड़ दिया जिससे भारतीय संविधान की आत्मा का रूप बदलकर sovereign,secular,socialist,democratic,republic हो गया। ऐसा नहीं है की इस बदलाव के पहले संविधान में socialism या secularism की बात नहीं थी।अनुच्छेद २५ से ३० तक में secularism निहित है तथा संविधान के भाग ४,नीतिनिदेशक तत्वों में socialism की व्याख्या भी है,परन्तु इस बदलाव के तहत इसे उभारा गया। इस बदलाव का मकसद साफ़ था,वोटबैंक आधारित राजनीति । संविधान में निहित secular का मतलब था सर्वधर्म समभाव परन्तु secular शब्द को धर्मनिरपेक्षता का अर्थ देकर खुलेआम धर्म आधारित राजनीति की गई वरन अब भी जारी है.आज कुछ एक दलों को छोड़ दें तो कांग्रेस,वामदल,बसपा,सपा,जनता दल,राजद से लगाए लगभग सभी राजनितिक दल ख़ुद को secular यानि धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करते हुए वोटबैंक बढ़ाने में लगे हुए हैं. जबकि तकनिकी या राजनीतिक दृष्टि से secular का अर्थ धर्मनिरपेक्ष नहीं होता.यहाँ तक कि संशोधित संविधान की जो हिन्दी प्रति छपवाई गई उसमे भी secular की जगह पंथनिरपेक्षता रखा गया है.परन्तु वोट की राजनीति की खातिर सभी राजनीतिक दलों ने तथाकथित तौर पर धर्मनिरपेक्ष होने का स्वांग रचा और निरंतर भारत की भोली जनता को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहे. अगर गौर करें तो इस शब्द का लाभ लेकर केवल कांग्रेस या वामदल जैसे दलों ने ही मलाई नही काटी वरन धर्म का तमगा लेकर चलने वाली भाजपा ने भी इससे मजे किए. कभी तो जम्मू कश्मीर में धारा ३७० तो कभी एकसमान नागरिक संहिता की बात पर बवाल मचाया.वक्त के साथ साथ रंग बदलते हुए कभी एकात्म मानववाद तो कभी प्रचंड राष्ट्रवाद का नारा बुलंद कर अपने वोट की झोली का वजन बढाते रहे. पर अब जबकि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की तो फ़िर एकबार इसके निशाने पर अपना चुनावी उल्लू सीधा करना ही है.जाने कबतक इस क्षनिक राजनीतक लाभों की सलीब पर हमारी राष्ट्रिय एकता बलि चढ़ती रहेगी. आलोक सिंह "साहिल"

गुरुवार, 5 जून 2008

यह एक राजनीतिक साजिश है...

यह एक राजनीतिक साजिश है...

बचपन से ही मेरे मन में एक फँतेशी थी कि काश मैं भी किसी अदालती करवाई को देखता.बड़े होने के साथ-साथ ये शौक भी बढ़ता गया,पर इन दिनों कुछ अलग ही बात हुई.जब भी सुबह पेपर खोलता कोई न कोई अदालत का मामला देखने को मिल जाता,सच कहूँ तो मेरा शौक सर चढ़ने लगा.वैसे फिल्मों में तो बहुत बार देखा,अब तो न्यूज़ चैनल्स वाले भी हमारी इस फैंतेशी को समझने लगे हैं,पर दुःख वही कि सच्ची वाला नहीं देख पाए. तभी अचानक अखबार के फ्रंट पेज पर एक बहुत बड़ा हाई प्रोफाईल मामला दिखा,जिसका फ़ैसला दूसरे दिन होना था.मामला कुछ यूं था... एक लड़की के प्रेमी को लड़की के दो राजकुमार भाईयों ने पहले हथौडे से कुंच कुचकर चोखा बनाया,फ़िर स्वाद नहीं जंचा तो तेल से फ्राई भी कर डाले.अरे भाई,भर्ता...! अब ये अलग बात है कि ८० रुपये लीटर वाला सरसों का तेल नहीं मिला तो जल्दबाजी में गाड़ी के पेट्रोल से ही काम चला लिए.अजी,पेट्रोल फ़िर भी ५० रुपये लीटर है.तो खैर,अख़बार में पढे तो हमारे शौक को पर लग गए.पहली बात तो ये कि इस मामले की सुनवाई जिस अदालत में होनी थी वो मेरे कमरे के पास में ही था और दूसरा ये कि मामला दो हाई प्रोफाईल घरानों का था तो कुछ हाई प्रोफाईल लोगों को अपनी नंगी आंखों से देखने का मौका भी मिल जाएगा,वैसे भी किसी को नंगी हालत में देखने के बाद उससे मेल जोल बढ़ाना आसान हो जाता है.दूसरे दिन हम भी नहा धोकर क्रीम-पावडर पोत कर पहुँच गए अदालत.. अदालत की करवाई शुरू हुई.........दोनों राजकुमार,मुलजिम बने अदालत में खड़े थे,कसम से हम तो बस उन भोले भाले राजकुमारों को ही निहारने में लगे थे.अजी,घर में काँटा चम्मच से खाने और नैपकिन से मुंह पोंछने वालों को लोहार्गिरी नहीं जंचती न.ये दोनों तो समाज के हाशिये पर आ चुके बेचारे लोहारों के रोजी रोटी से ही खिलवाड़ करने लगे थे.सो,सजा तो मिलनी ही थी. ज्योंही जज साहब ने राजकुमारों को ताउम्र वनवास का फैसला सुनाया,दोनों राजकुमारों के गोरे चेहरों पर सफ़ेद आभा झलकने लगी.राजकुमारों के वनवास की बात सुनकर माताएं रो पड़ीं,उधर, शहीद प्रेमी की माँ और भाई अपनी गौरवमय खुशी छुपाने के लिए एक दूसरे को आलिंगनबद्ध कर लिए.बड़ा ही इमोशनल सीन क्रिएट हो गया था. तबतक बाहर से शोर आने लगी,...जिन्दाबाद,...मुर्दाबाद.... राजकुमारों के चाहने वाले अदालत के बाहर नारेबाजी करने लगे(एकदम से रामायण के वनवास का दृश्य स्मरण हो आया.) इसी बीच,चकमक चकमक करके फोटो शेषन शुरू हो चुका था,लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ अपनी मजबूत पहुँच प्रदर्शित करने में लगा था,रह रह कर फोटो शेषन के बीच में एक घुटी सी आवाज गूंज उठती-"यह एक राजनीतिक साजिश है,सियाशी कारणों से हमें फंसाया जा रहा है." कैमरे के फ्लैश अब भी चमक रहे थे,और इस तरह एक बड़े लोकतंत्र का हिस्सा बनते हुए भारी मन से मैं अपने कमरे का रुख कर चुका था.

आलोक सिंह "साहिल"

मंगलवार, 3 जून 2008

इंडिया शायिनिंग...

इंडिया शायिनिंग...
इंडिया शयिनिंग,शयिनिंग इंडिया बहुत सुन रहे थे।सोंचें हम भी देखें।अजी! हम,इंडिया के एक सजग नागरिक हैं,हमारा तो कर्तव्य है कि हर शयिनिंग के विषय में जानें,पर कहीं नहीं दिखा,आप यकीं नहीं मानेंगे,इसी शयिनिंग को देखने के चक्कर में चश्मा तक लगा लिए पर यह प्रयास भी असफल।अलबत्ता,सेंसेक्स के पर लगते जरुर देखे।एक बात और हुई,तो क्या हुआ कि आज भी हमारे देश में तकरीबन ३५ करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करते हैं,पर हमारे इंडिया के ही मुकेश अम्बानी कुछ दिनों तक विश्व के सबसे आमिर आदमी बने रहे,पर तब भी संतोष नहीं हुआ।
तब तक बारी आ गई थी,महंगाई की। ठेलमठेल महंगाई बढ़ी।हमेशा की तरह हमारे जननायक कामरेड साथी और विपक्षी दलों ने हो हल्ला मचाना शुरू कर दिया सरकार की नाक में ।तथाकथित तौर पर दम कर दिया(पता नही लोग नाक में कैसे दम कर लेते हैं?)।पर कुशलता देखिये स्वभावतः ठस वित्त मंत्री जी की ,एक सधा सा वक्तव्य जारी कर दिए। "ये महंगाई सिर्फ़ भारत की समस्या नहीं है,वरन पूरे विश्व की समस्या है।अमेरिकी सब प्राइम संकट का असर है।वैश्विक मार्केट में कच्चे तेल व अनाज के दामों में घोर तेजी के कारण महंगाई बढ़ी है।"अंत में थोड़ा सा छुआ भी दिए-"वैसे,सरकार प्रयास कर रही है।सरकार के पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि एकबार घुमाया और महंगाई गायब,महंगाई है तो जाते जाते ही जायेगी।"
इसी तरह की कुशल लफ्फाजी हमारे मनोहारी पीएम् मनमोहन जी ने भी की।ओजी! सब कहते हैं तो इनका कहना भी बनता है।
खैर,हटायिये।ये सब राजनितिक बातें हैं,हम शरीफों का राजनीति से क्या लेना-देना?पर एक बात तो तय है कि जब यही यूपीए विपक्ष में होगी तो ठीक वैसे ही हंगामा करेगी जैसे अभी के विपक्षी कर रहे हैं,और हाँ एक बात और कामन होगी कि तब भी हमारे सर्वप्रिय कामरेड सुर में सुर मिला रहे होंगे।
माफ़ कीजिएगा, विषयांतर हो गया,शुरू कहाँ से किए थे कहाँ पहुँच गए?
जी हाँ,तो हम बात कर रहे थे इंडिया शयिनिंग की तो बहुत धुन्धे पर कहीं नहीं दिखा।सच कहें तो हम हताश ही हो चले थे कि यार! सभी को नजर आता है,हम क्या किसी और दुनिया से आए हैं जो हमें नजर नहीं आती।अब तो समाज में चश्मा पहनकर चलने से भी गुरेज करने लगे कहीं कोई दुखती रग पे हाँथ न रख दे।तभी,नजर पड़ी कुछ ख़बरों पर।
आप भी देखिये- पिछले दिनों वैश्विक महंगाई पर बोलते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री कोंदालिजा राईस ने कहा-"भारत का मध्य वर्ग अब दोनों जून भर पेट खाने लगा है,इसीलिए विश्व मार्केट अनाज की कीमतें बढ़ी हैं।" अरे ई क्या अचम्भा? हम तो चौंक ही गए तब तक दूसरी ख़बर भी देख लिए-
अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने कहा-"भारत का मध्यवर्ग ३५ करोड़ से ज्यादा है जो कि कुल अमेरिकी आबादी के लगभग बराबर है।इनके जीवन शैली में प्रगति के कारण अनाज की खपत बढ़ी है।यही कारण है कि महंगाई ग्लोबल लेवल पर बढ़ रही है।"
ओह माय गाड!ओह माय गाड!
खुशी के मारे आंखो से बरबस आंसू निकल पड़े।
जब विश्व के सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति हमारे प्रगति का लोहा मान रहा है तो सचमुच हम shine कर रहे हैं,अब मन में कोई संशय नही रह गया, और जहाँ तक बात है महंगाई,लूटपाट,बम धमाके,हत्या रेप.....कि तो ये तो हर जगह होता है,वैसे भी ये सब बड़े आदमियों के शगल हैं।
मैं,आत्मग्लानि और शर्म से मरा जा रहा था,अपना नाकाबिल चश्मा उतार कर तुरंत फेंका और मुंह छुपाये हुए चल दिया अपने एयर कन्दिशंद बेडरूम में सोने ताकि एसी की ठंडक में मैं ख़ुद भी महसूस कर सकूं,..........इंडिया'ज शयिनिंग॥

आलोक सिंह "साहिल"

रविवार, 1 जून 2008

सियासत के कुत्ते......
हमारा एक बड़ा प्यारा सा पड़ोसी है,यूं कहें कि भाई ही है,जो पाक साफ टॉप इतना है कि नाम ही है पाकिस्तान.
बेचारी वहाँ की जनता ने न जाने किस किस जन्म में और कितने कितने पुन्य किए कि उन्हें वहाँ पैदा होने या वहाँ रहने का सुअवसर मिला(किसी को भी उनके भाग्य से रश्क हो सकता है।)।इस देश का सबसे बड़ा सौभाग्य यह कि आजादी के ६० सालो बाद भी वहाँ लोकतंत्र कागज से बाहर आने की हिम्मत नहीं जुटा सका और वहाँ छाये रहे तो तथाकथित सुधारवादी विचारों के मुखिया।
पिछले ८-९ सालों से वहाँ कुछ ऐसा ही नजर चल रहा था,अभी हाल ही में जैसे तैसे तमाम तिकदम करके वहाँ एक सरकार बनी,तात्कालीन पाकिस्तानी राजनीति में भ्रष्टाचार के सबसे अधिक झूठे आरोपों से घिरे आफिस अली जरदारी और दूध के जले(दूध के धुले नहीं),नवाज शरीफ जैसे दो महान शख्सियतों के वैचारिक गठजोड़ से।
मित्रों,दुनिया का रंग भी कितना निराला,यहाँ सबका अपना टशन है,जरदारी का टशन था कि किसी तरह सत्ता पर काबिज होकर कुछ माल मुद्रा बनाया जाय(अरे भाई, इतने दिन जेल में चक्की पीसने का कुछ मुआवाज तो मिलना ही चाहिए),तो नवाज शरीफ का टशन कि बर्खास्त जजों को लाया जाय और मुशर्रफ को हटाया जाय। आपने वाली बात तो सुनी ही होगी...
"सियासत के ये कुत्ते हैं,न तेरे हैं न मेरे हैं"
यहाँ भी वही कहावत चरितार्थ हो गई।
बाजी लग गई जरदारी के हाँथ,पहली बात तो ये कि उनकी मरहम बेगम बेनजीर भुट्टो अमेरिका की राजदूत बनकर पाकिस्तान लौटी थी,अब उनके जाने के बाद किसी को तो राजदूत बनना ही था तो जर्दारी ने भुना लिया यह मौका,वैसे भी प्रिविलेज तो मिलना ही था। उधर अंदर ही अंदर मुशर्रफ से भी चाय पानी वाला हिसाब किताब फिट हो गया तो अब डर काहे का? दिखा दिए नवाज शरीफ को ठेंगा।बेचारे नवाज करें तो क्या? "हम थे जिनके सहारे,वो रहे न हमारे।" सो,शुरू कर दिया पढ़ना नमाज।अल्लाहो अकबर अल्लाह.....
शायद खुदा उनकी मदद करे!
आमीन

आलोक सिंह "साहिल"