शनिवार, 29 नवंबर 2008

कहाँ है राज ठाकरे और उसकी बहादुर सेना...

कल रात १२ बजे करीब मेरा मोबाईल एकाएक घनघना उठा,मैं कुछ काम कर रहा था,खैर,देखा एक मैसेज आया था.भेजने वाला एक ऐसा लड़का था जो मेरे छोटे भाई की तरह है.मैं उसे एक बच्चे की तरह ही मानता और समझता रहा हूँ,जो शरीर से तो बड़ा है पर उसकी सोच बच्चों वाली है.मैंने मैसेज पढ़ा,चौंक गया.अरे,ये क्या मैसेज भेजा है इसने?इतना बड़ा हो गया है अंशु?....... मैसेज था- "where is raj thackaray n his 'brave' sena?tel him dat 200 NSG commondos 4m Delhi(no marathi manoos! all south &north indians) hv been sent 2 mumbai to fite t terrorists so dat he can sleep peacefully..pls fwd ths so tht it finally reaches t coward bully!tel him nt 2 destroy my country's sovergnity...." (कहाँ है राज ठाकरे और उसकी 'बहादुर'सेना ? उनसे कह दीजिये कि दिल्ली से २०० एनएसजी कमांडो आतंकियों से लड़ने मुम्बई भेजे गए हैं ताकि वह चैन की नींद सो सके... कृपया इस संदेश को फारवर्ड करें ताकि यह अंततः उस (राज ठाकरे)नपुंसक! के पास पहुँच जाए.उनसे कह दीजिये कि मेरे देश की संप्रभुता और अखंडता को नष्ट न करे....) मैं हतप्रभ था मैसेज पढ़कर,नहीं की किसी ने बहुत बड़ी बात की थी,पर की,इस घटना को एक बच्चा भी इस रूप में देख सकता है. महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों पर हमले और मुम्बई में हुई आतंकी घटना,दोनों दो बिल्कुल अलग बातें हैं.किसी भी रूप में दोनों की तुलना नहीं की जा सकती (शिवाय इसके की दोनों ही घटनाएं सरकार और प्रशासन नामक संस्था को आइना दिखाती हैं),पर आम जनता कैसे इन दोनों घटनाओं में सम्बन्ध स्थापित कर नई बातें और नई सीख पैदा कर लेती है,विस्मयकारी है. दुखद है तथाकथित हमारे नेता आम जनता की श्रेणी में नहीं आते,वरना शायद इस संदेश की जरुरत ही नहीं पड़ती.
आलोक सिंह "साहिल"

कहाँ है राज ठाकरे और उसकी बहादुर सेना...

कल रात १२ बजे करीब मेरा मोबाईल एकाएक घनघना उठा,मैं कुछ काम कर रहा था,खैर,देखा एक मैसेज आया था.भेजने वाला एक ऐसा लड़का था जो मेरे छोटे भाई की तरह है.मैं उसे एक बच्चे की तरह ही मानता और समझता रहा हूँ,जो शरीर से तो बड़ा है पर उसकी सोच बच्चों वाली है.मैंने मैसेज पढ़ा,चौंक गया.अरे,ये क्या मैसेज भेजा है इसने?इतना बड़ा हो गया है अंशु?....... मैसेज था- "where is raj thackaray n his 'brave' sena?tel him dat 200 NSG commondos 4m Delhi(no marathi manoos! all south &north indians) hv been sent 2 mumbai to fite t terrorists so dat he can sleep peacefully..pls fwd ths so tht it finally reaches t coward bully!tel him nt 2 destroy my country's sovergnity...." (कहाँ है राज ठाकरे और उसकी 'बहादुर'सेना ? उनसे कह दीजिये कि दिल्ली से २०० एनएसजी कमांडो आतंकियों से लड़ने मुम्बई भेजे गए हैं ताकि वह चैन की नींद सो सके... कृपया इस संदेश को फारवर्ड करें ताकि यह अंततः उस (राज ठाकरे)नपुंसक! के पास पहुँच जाए.उनसे कह दीजिये कि मेरे देश की संप्रभुता और अखंडता को नष्ट न करे....) मैं हतप्रभ था मैसेज पढ़कर,नहीं की किसी ने बहुत बड़ी बात की थी,पर की,इस घटना को एक बच्चा भी इस रूप में देख सकता है. महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों पर हमले और मुम्बई में हुई आतंकी घटना,दोनों दो बिल्कुल अलग बातें हैं.किसी भी रूप में दोनों की तुलना नहीं की जा सकती (शिवाय इसके की दोनों ही घटनाएं सरकार और प्रशासन नामक संस्था को आइना दिखाती हैं),पर आम जनता कैसे इन दोनों घटनाओं में सम्बन्ध स्थापित कर नई बातें और नई सीख पैदा कर लेती है,विस्मयकारी है. दुखद है तथाकथित हमारे नेता आम जनता की श्रेणी में नहीं आते,वरना शायद इस संदेश की जरुरत ही नहीं पड़ती.
आलोक सिंह "साहिल"

बुधवार, 19 नवंबर 2008

राजनीतिक नपुंसकता......चार चाँद लगाती रहेगी..?

डान फ़िल्म देखी है आपने?अरे वही जिसमें छोरा गंगा किनारे वाला बनारसी पान चबाते हुए बम्बई पहुँचता है और उसके कसीदे पढ़ते हुए गाता है 'ई है बम्बई नगरिया तू देख बबुआ'.जी हाँ,तब मुम्बई,बम्बई हुआ करती थी,उन्ही दिनों इडली,साम्भर,डोसा की बदबू से परेशान बम्बई का एक भूमिपुत्र हांथों में "छड़ी" लेकर पैदा हुआ और तमाम लुन्गीवालों को दक्षिण का रास्ता दिखा ताकि उसे वहां की राजनीति में एक रास्ता मिल जाए,मिला भी और वह छड़ी के बल पर ही किंगमेकर बन बैठा.तब बम्बई विकास के पहियों पर बहुत तेजी से दौड़ रही थी,बहुत विकास हुआ,इतना कि बम्बई,वर्णक्रम में दो कदम आगे बढ़कर 'ब' से 'म' पर आ गई और मुम्बई हो गई. अब वो "छड़ी" पुरानी हो गई थी,बिल्कुल घिसी हुई और कमजोर.तब उसे दरकार थी एक और नई छड़ी की पर उसे सँभालने के लिए नए,मजबूत हाँथ भी चाहिए थे.तब पुत्रमोह और बंटवारों के बीच वो "छड़ी" उसी भूमिपुत्र के भतीजे ने उठा ली,फर्क और भी आया,तब रुख दक्षिण का था अब उत्तर का. अब कहानी से आगे बढ़कर आज के मुद्दे पर आते हैं.आज राज ठाकरे(वही भतीजा) जैसा २००(सक्रिय) कार्यकर्ताओं की पार्टी चलाने वाला बन्दा मुम्बई से उत्तर भारतीयों को खदेड़ने पर अमादा है.कारण इसबार भी वही राजनीतिक हैसियत बना पाने की जद्दोजहद.इसके चलते देशभर में क्षेत्रीयता की आग लपटें लेने लगी,भाषा और क्षेत्र आधारित राजनीति सर उठाने लगी है. क्षेत्रीयता का जो राजनीतिक सबक मुम्बई से चल पड़ा है वह सरेआम उस लोकतंत्र की ऐसी तैसी कर रहा है,जिसके बूते आजादी के वक्त सरदार पटेल ने क्षेत्रीयता और बिखराव के तमाम रुझानों को नाकाम किया था. जब सरदार पटेल ने साढे पाँच सौ सूबों में बँटे हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरोने का काम शुरू किया तो तीन रियासतों से विरोध हुआ जिनमें एक जूनागढ़ भी था जो उन्ही के गृह प्रदेश गुजरात का हिस्सा था.जब वहां का निजाम साम दाम से नहीं माना तो उन्होंने सैनिक कार्रवाई से जूनागढ़ को गुजरात का अभिन्न हिस्सा बना दिया. अगर इस किस्से/घटना को ध्यान रखें तो यह सोचना बिल्कुल ग़लत है कि अगर केन्द्र सरकार चाहे तो भी इस क्षेत्रीयता की लपटों को शांत नहीं कर सकती.विडम्बना है कि आज देश का गृह मंत्री उसी महाराष्ट्र से आता है जहाँ क्षेत्रीयता की राजनीति चरम पर है.उस राज्य में सरकार भी उसी पार्टी की है जो केन्द्र में बैठी है,पर फ़िर भी कोई कुछ कहने को तैयार नहीं........अधिक दुखद/हास्यास्पद यह है कि आज जबकि सारा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा है वहीँ हमारा देश भाषा और क्षेत्रीयता की क्षुद्र राजनीति में व्यस्त है जिसे तक़रीबन दो दशक पहले दबा दिया गया था.सवाल यह कि,आख़िर कब तक इच्छाशक्ति की कमी से उपजी राजनीतिक नपुंसकता राजनेताओं की हैसियत में चार चाँद लगाती रहेगी,जाने कब तक?
आलोक सिंह "साहिल"

सोमवार, 3 नवंबर 2008

नसीरुद्दीन शाह, तालियाँ,कैमरों के फ्लैश और लोगों का हुजूम

जामिया मिल्लिया इस्लामिया का अंसारी ऑडिटोरियम दर्शकों से खचाखच भरा था,तमाम छोटे बड़े लोग आपनी-अपनी सीटों पर काबिज थे,कुछ, जिनको सीटें मयस्सर नहीं हो सकीं तो सीटों के नीचे कालीन पर ही बैठ लिए,बाकी कुछ जगह जहाँ कहीं बची थी उसे कैमरा वालों और खबरचियों ने भर रखा था.एक कौतूहल सा भर गया था पूरे वातावरण में.इसी बीच मंच पर हलकी सी कुछ सरसराहट हुई,क्षणेक के लिए व्याप्त सन्नाटे के बाद एकाएक पूरा ऑडिटोरियम शोर,तालियों और कैमरे के फ्लैश से भर उठा.मंच पर एक बेहद परिचित और संजीदा सा लगने वाला आदमकद आ चुका था,जिसके दोनों हाँथ बार बार लबों पर जाकर दर्शकों की तरफ़ फ्लाईंग किस उछालने में व्यस्त थे.तबतक पीछे बैठे किसी ने जोर से गला फाडा,"नसीर भाई,सलाम वालेकुम",शायद आवाज उनतक पहुँच नहीं सकी होगी,क्योंकि वे जवाब देने की बजाय मंच पर रखे सोफे पर पसर चुके थे. मंच पर पहले से मौजूद एक प्रस्तोता ने मिसेज किदवई को आवाज लगायी कि वे आयें और 'नसीरुद्दीन शाह' साहब का परिचय कराएं जिनके परिचय की जरुरत इस तीसरी दुनिया में तो कम से कम नहीं ही है.खैर,कुछ एक बेहद भारतीय सरीखे औपचारिकताओं के बाद नसीर साहब कमर कस चुके थे,क्योंकि आज उन्हें वहां दर्शकों से सीधे मुखातिब होकर उनकी तमाम जिज्ञासाओं को शांत करना था.इस मौके पर उन्होंने निजी जिंदगी से लगाये फिल्मों,थियेटर और सामाजिक मुद्दों पर खुलकर जवाब दिए.उन्होंने कहा कि मैं मूलतः थियेटर का इन्सान नहीं हूँ पर मेरी पहली पसंद वही है क्योंकि इसमें सीधे दर्शकों से संवाद करने का मौका मिलता है(हालाँकि ऐसे,मुझे लोगों को फेस करने में असुविधा होती है).एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहाकि आजकल के नए निर्देशकों में काफ़ी क्षमता है और वे सामाजिक सरोकारों वाली फिल्में भी बना रहे हैं.बेशक,७० के दशक में भी सामाजिक सरोकारों वाली फिल्में बनीं लेकिन वे मास्टर पीस कत्तई नहीं थी.चूँकि उस समय के निर्माताओं में आलोचना सहने की क्षमता नहीं होती थी इसीलिए तथाकथित समांतर सिनेमा का अवसान हो गया.जबकि आजकल के निर्माताओं में प्रयोग करने का साहस और आलोचना सहने की क्षमता भी है.यही वजह है कि आज भारतीय सिनेमा फ़कत नाच गाने वाला एक ड्रामा नहीं रहा गया है बल्कि बाहर वाले भी इसे गंभीरता से लेने लगे हैं. जब एक छात्र ने फंडामेंटलिज्म की बात छेड़ी तो उनका कहना था फंडामेंटलिज्म वे लोग हैं जिनके पास अपने ख़ुद के विचार नहीं हैं.साथ ही उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि आज जरुरत इस बात की है कि इस्लाम को जानने के लिए कुरान को न सिर्फ़ पढ़ा जाए बल्कि सही तरीके से समझा जाए और इसके ग़लत इंटरप्रीटेसन से भी बचा जाए. जैसे जैसे नसीर साहब सवालों का जवाब देते गए लोगों में सवाल पूछने के लिए होड़ मचने लगी.ऑडिटोरियम में बैठे सभी के पास कुछ न कुछ पूछने के लिए था.पर वक्त की कमी ने इस सिलसिले को थमने पर मजबूर कर दिया.फ़िर आने का वादा कर नसीर साहब ने रुखसत ली और जाते जाते एक बार फ़िर दर्शकों की तरफ़ फ्लाईंग किस उछालकर उनके प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त किया.इस तरह जामिया मिल्लिया इस्लामिया और वहां उपस्थित लोगों के लिए वह दिन एक तारीख बन गया.
आलोक सिंह "साहिल"