ऐसे तो हिन्दुस्तान धमाकों का देश बन चुका है,कोई भी जगह ऐसी नहीं बची जिसे सुरक्षित माना जाए...चाहे वो संसद ही क्यों न हो....पर मुम्बई में हुए धमाकों ने हमारी एक और अदा की बानगी पेश की॥हमारी बुझदिली! मुम्बई में धमाके क्या हुए ,मानो क़यामत ही आ गई...लोग गला फाड़ने लगे,लोगों का काम ही है गला फाड़ना।बेचारे कर भी क्या सकते हैं,कोई भी ख़ुद को लाचार और असुरक्षित महसूस करने वाला इंसान थक-हारकर गला फाड़ने लगता है,तो ये कोई नई बात नही...ऐसा तो हर धमाके के बाद ही होता है.पर जो बात इसबार अजीब हुई कि लोगों( आम जनता) ने तो अपना काम किया ही(इस मामले में हम भारतीय बहुत ईमानदार हैं)आश्चर्यजनक तरीके से हमारे सुख-दुःख के नियंता,हमारे नेतागण भी गला फाड़ने लगे....देने लगे पाकिस्तान को चेतावनी,उधर पाक अपनी मनमानी करता रहा...इसबीच गृहमंत्री बार बार कहते रहे,इसबार मार फ़िर बताता हूँ.कभी तो आतंकियों के पाकिस्तानी होने का सबूत पाक को दिखाते तो कभी विश्व समुदाय को दिखाने की बात करते...थक हारकर अमेरिका की शरण में आ गिरते...उखड़ता कुछ नही.. क्या हो गया हमें? कहीं हमने अपनी धार तो नहीं खो दी (दुर्भाग्य से वो कभी थी ही नही..)क्योंकि जिसके पास कुछ करने का बूता होता है वो धमकियाँ नहीं देता, क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,उसको क्या जो दंत-विहीन विषरहित विनीत सरल होक्या हुआ अमेरिका में..एक धमाका हुआ और उसने खड़े-खड़े अफगानस्तान को नेस्तोनाबूद कर दिया ग़लत किया कि सही यह अलग विवाद का मसला हो सकता है..पर असल बात यह है कि उसने अपने जख्म पर मरहम लगाने के लिए भारत या किसी अन्य देश के आगे गुहार नहीं लगाई नही,जो करना था कर गुजरा..हमें आजाद हुए ६ दशक से भी ज्यादा हो गए,इस बीच हम बहुत बड़ी परमाणु शक्ति भी बन बैठे,फ़िर भी आज भी किसी भी छोटी-बड़ी समस्या पर दूसरो के आगे टेसुयें बहाने की आदत नहीं गई. ऐसा क्यों? क्या पाक और अमेरिका के माँओं के सीने से ही दूध निकलता है,हमारी माएं पानी पिलाती हैं?
क्या हिन्दुस्तान की माँओं ने कायर और नामर्द जनना शुरू कर दिया है? नही॥ऐसा बिल्कुल नही,अब मुम्बई धमाकों के बाद सोनिया गाँधी का भाषण ही सुन लीजिये (आख़िर,वह भी एक मां हैं..) कि हम भारतीयों में बलिदान की उत्कृष्ट परम्परा रही है...क्या मायने हैं इसके ?क्या हम भारतीय सिर्फ़ गुमनाम मौत मरने के लिए ही पैदा होते हैं? चलिए दूसरे तरीके से बात करते हैं...अगर 26/11 की घटना मुम्बई की जगह वाशिंगटन में हुई होती तो क्या होता..पाकिस्तान अबतक इराक की शक्ल अख्तियार कर चुका होता..पर,भारत ऐसा नही कर पाता..आखिर क्या मज़बूरी आड़े आती है? सच कहते हैं पाकिस्तानी कि हमलोग बिल्कुल कायर और नामर्द।हमारा लहू कभी उबलता ही नही.हर एक घटना के बाद हमारे विदेशमंत्री एक ही राग अलापते हैं कि सारे विकल्प खुले हैं...क्या मतलब निकाले हम इसका ?क्या चुल्लू भर पानी में डूब मरने का विकल्प भी नहीं खुला है?मुम्बई हमले को दो महीने होने को आए और हम जहाँ के तहां हैं...कुछ हुआ है तो फकत लफ्फाजियां..हमारे हुक्मरान कहते हैं कि युद्ध की कोई संभावना नही,अरे,कौन चाहता है कि युद्ध हो? पर, कि पाकिस्तान यूँ हमारी निर्लज्ज कायरता के कारण वाक् ओवर पा जाए यह भी तो नही चाहते...दुर्भाग्य है कि ,अपने जख्मों का हिसाब लेने के लिए हम उम्मीद करते हैं उस अमेरिका से जिसने ख़ुद पाक में आतंक को पाला-पोषा है और बेइंतहा पैसा खर्च करके उसे अपना प्रिय पिट्ठू बनाया है, हम उम्मीद करते हैं उस अमेरिका से जिसे किसी भी सूरत में पाक-अफगान सीमा पर पाकिस्तान की मदद की दरकार है.यदि भारत-पाक युद्ध होता है तो पाकिस्तान अपनी सेना वहां से हटा लेगा जो कि अमेरिका के लिए किसी अंधे कुंए में गिरने से भी बदतर होगा...ऐसे में अमेरिका से मदद की उम्मीद हमारी किस मानसिक दशा को दर्शाता है?आज अगर हमारे पास मुम्बई की घटना में पाक के शामिल होने के पुख्ता सबूत हैं तो अमेरिका के आगे झोली फैलाने का क्या मतलब?क्या हम इस लायक भी नहीं कि छोटे-मोटे हिसाब ख़ुद क्लियर कर लें?हम चीखते हैं कि सारे सबूत पूरे दुनिया को दिखायेंगे,किसे दिखायेंगे,उन्हें जो अपनी आँखे जानबूझकर खोलना ही नहीं चाहते.क्या आंखों देखी को भी प्रमाण की जरुरत होती है?दुनिया में कौन ऐसा अँधा है जिसे पाक की आतंकी करतूतों की ख़बर नही? हमारी पीढी के लिए यह शायद पहलीबार है जब पूरे देश में नेताओं के विरुद्ध रोष की ऐसी लहर उठी है,अगर फिरभी सब-कुछ ऐसे ही चलता रहा तो बहुत जल्द ये लहर सुनामी का रूप धर लेगी,जिसकी तबाही से हमारे हुक्मरान भी बच नहीं पायेंगे...
आलोक सिंह "साहिल"