सोमवार, 17 मई 2010
एक पतन और सही...
और फिर एक और संस्था मलबे में तब्दील हो गई...संस्था से मतलब इंस्टीट्यूट से नहीं बल्कि इंस्टीट्यूशन से...इंस्टीट्यूशन, जिसे बनने और बनाने में लंबा ऐतिहासिक सफर तय करना पड़ता है...और फिर उसका यूं बिखर जाना...बेहद दुखद.
हम बात कर रहे हैं एमसीआई, मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की...जो अब सिर्फ इतिहास बन चुका है...क्योंकि एमसीआई के चेयरमैन केतन देसाई को भ्रष्टाचार के एक मामले में गिरफ्तार होने के बाद उसे भंग कर दिया गया...जिस पर बाद में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने अपनी मुहर लगा दी...और अब पूरे गाजे-बाजे के साथ एमसीआई जमींदोज हो गई...इस नए संकल्प के साथ कि अगले साल से केंद्र द्वार बनाए गए नए क़ानून के तहत एमसीआई की जगह एक नई संस्था का गठन होगा...यानी एक संस्था इतिहास के पन्नों में और दूसरी इतिहास के पहले पन्ने पर...
क्या थी एमसीआई ?
एमसीआई का गठन इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट 1933 के तहत, 1934 में किया गया.
उद्देश्य था...देश के सभी मेडिकल कॉलेजों का नियमन...आजादी तक तो सब ठीक था...लोकिन आजादी के बाद मेडिकल कॉलेजों की संख्या धड़ल्ले से बढ़ने लगी...तो समस्याएं भी बढ़ने लगीं...फिर धीरे-धीरे यह महसूस किया जाने लगा कि 1934 में बनाए गए...नियम कानूनों में कुछ सुधारों की ज़रूरत है...जिसके चलते 1956 में इसकी जगह एक काफी हद तक नया...एक्ट लाया गया...जिसमें बाद में फिर 1964, 1993 और 2001 में तीन संशोधन किए गए...इसके उद्देश्य बहुत स्पष्ट थे...सभी संस्थानों में पढ़ाई का स्तर समान रखते हुए...भारतीय और अन्य विदेशी संस्थाओं के मान्यता संबंधी फैसले लेना....उचित डिग्री और योग्यता वाले डॉक्टरों का पंजीकरण और उनकी स्थाई और अस्थाई मान्यता...और विदेशी संस्थाओं से आपसी सामंजस्य के साथ मान्यता संबंधी मसले पर काम करना.
ले डूबा भ्रष्टाचार
एमसीआई कौन है, क्या है...इसके बारे में विरले लोगों को ही पता था...यूं कहें किंचित ही लोगों ने इसका नाम भी सुना हो...लेकिन मीडिया की देन कहें या फिर एमसीआई के तात्कालिक चेयरमैन के सुकृत्यों की अनुकंपा, कि अब काफी लोग जान गए हैं कि एमसीआई क्या थी...दरअसल, एमसीआई चेयरमैन केतन देसाई को इसी साल 22 अप्रैल को सीबीआई ने रिश्वत लेते हुए गिरफ़्तार किया था...वजह थी पंजाब मेडिकल कॉलेज को बिना सुविधा के अतिरिक्त छात्रों को भर्ती करने की अनुमति देने के लिए रिश्वत की मांग...रिश्वत लेते हुए पकड़े जाने के बाद उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ गया...और इस तरह 22 अप्रैल को ही आजादी पूर्व के इस संस्थान की विदाई का ब्लूप्रिंट तैयार हो गया...जो जल्द ही जमीनी हक़ीक़ीत में तब्दील हो गई...
नहीं पता कब तक, ऐसे भ्रष्टाचार देश के छोटे से लेकर बड़े संस्थानों को अपनी जद में लेते रहेंगे...लेकिन एक बात तो तय है संस्था चाहे छोटी हो या बड़ी...हर संस्था के खात्मे के साथ... आस्था के स्तंभ भी ध्वस्त होते हैं...परंपरा है, परंपराओं का क्या...ये तो शास्वत प्रक्रिया है...चलती रहेगी...कल को फिर कोई देसाई आएगा और अपने कारनामों के साथ आस्था के हज़ारों-हज़ार स्तंभों को ध्वस्त कर जाएगा...
आलोक साहिल
गुरुवार, 13 मई 2010
पत्नियों के साथ रात बिताने हक...
पाकिस्तान...जिसका नाम आते ही जेहन में बेहद दकियानुसी और फिल्मों एवं मीडिया की बदौलत बनी एक स्टीरियोटाइप तस्वीर सामने आने लगती है...लेकिन इसबार कुछ अलग और दिलचस्प मामला है...माजरा ऐसा कि सुनकर यकायक यकीन नहीं होगा कि यह ख़बर पाकिस्तान से आई है...जी हां, पाकिस्तान के सिंध प्रांत की सरकार ने क़ैदियों को उनकी पत्नियों से जेल के भीतर मिलने और रात गुजारने की सुविधा देने की घोषणा की है और बाकायदा इसकी व्यवस्था करने के लिए जेल अधिकारियों को आदेश भी दिया है.
पाकिस्तान की स्टेट होम मिनिस्ट्री ने इस संबंध में एक अधिसूचना जारी की है, जिसमें कहा गया है कि सिंध प्रांत की जेलों में क़ैद पुरूषों की पत्नियां अब उनके साथ हर 3 महीने के बाद जेल की भीतर एक रात बिता सकती हैं…
जेल अधिकारियों का आदेश दिया गया है कि जेल के भीतर क़ैदियों और उनकी पत्नियों के मिलने के लिए एक जगह की व्यवस्था की जाए...साथ ही उनकी गोपनीयता का भी ध्यान रखा जाए.
अधिसूचना के अनुसार 5 साल या उससे अधिक की सज़ा वाले क़ैदी इस सरकारी राहत से लाभ उठा सकते हैं...जो क़ैदी इस सुविधा का लाभ लेना चाहते हैं, उन्हें सबसे पहले जेल के अधीक्षक के समक्ष अपना निकाहनामा प्रस्तुत करना होगा...
अधिसूचना में कहा गया है कि अगर किसी क़ैदी की 2 पत्नियाँ हैं तो उन्हें अलग अलग समय दिया जाएगा, जबकि महिलाएं अपने साथ 6 साल की उम्र तक के बच्चों को भी ला सकती हैं...ये तो बल्ले-बल्ले है जी.
लेकिन ऐसा नहीं कि सभी क़ैदियों को यह सुविधा मिलने वाली है...पहली बंदिश तो 5 साल से अधिक की क़ैद होना है, दूसरी यह है कि संबंधित क़ैदी आतंकवाद के मामले में लिप्त न हो...या उस पर इससे संबंधित कोई मुकदमा न चल रहा हो.
खैर, एक तरफ जहां इस सुविधा को वाज़िब और लोकहित में बताया जा रहा है, वहीं सिंध के जेल अधीक्षकों के कान खड़े हो गए हैं...सरकार का क्या है...घोषणा तो सरकार ने कर दी, लेकिन मूर्त रूप तो उन्हें ही देना...ग़ौरतलब है कि सिंध प्रांत की 20 जेलों में 14 हज़ार के करीब क़ैदी बंद हैं...जबकि इन जेलों में 10 हज़ार क़ैदियों के रखने की ही जगह है...यानी एक तो पहले से ही सुपर हाउसफुल है...ऊपर से जब बीवी और बच्चों वाली बात आएगी, तो उनकी व्यवस्था कैसे की जाएगी...वह भी निहायत ही पोशीदा तरीके से...और तुर्रा ये कि इनमें से 75 फीसदी क़ैदियों के मुक़दमे अदालतों में चल रहे हैं.
हाल ही में अदालत ने अपने एक फैसले में कहा था कि शादीशुदा क़ैदी को अपनी पत्नी से मिलना का पूरा अधिकार है और यह सुविधा उसे जेल के भीतर दी जानी चाहिए...अदालत का कहना था कि क़ैदी अपनी पत्नी से न मिलने की वजह से मानसिक बीमारी का भी शिकार होते हैं और अक्सर नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं...यहां एक बात गौर करने वाली है कि जब क़ैदी जेल के अंदर हैं, तो उन्हें नशीले पदार्थ कहां से उपलब्ध होते हैं...यानी प्रशासन और व्यवस्था...अनचाहे और अप्रत्यक्ष रूप से यह भी मानती है कि उनकी जेलों में हिंदुस्तान की जेलों की ही तरह सबकुछ दुरुस्त है (खासकर बेऊर जैसी जेलों की तरह, जहां उत्कृष्ट किस्म के साहित्य से लेकर गुब्बारे और भी जाने क्या-क्या उपलब्ध होते रहते हैं)
इससे पहले भी 2005 में, पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की सरकार ने एक अधिसूचना जारी कर क़ैदियों को जेल के भीतर साल में 3 दिन अपनी पत्नियों के साथ रहने की अनुमति दी थी, जिसका व्यापक स्तर पर स्वागत किया गया था...यानी पश्चिमोत्तर प्रांत से चली ये बयार अभी दूर तलक जाएगी...अब तो भारत के क़ैदियों की भी यही तमन्ना है कि काश ! ये बयार भारतीय सरहद में दाखिल हो जाए.
आलोक साहिल
रविवार, 4 अप्रैल 2010
सड़क पर प्रसव, बच्चा प्रिविलेज्ड है....
एक और विशुद्ध प्रिविलेज्ड और प्राकृतिक बच्चा...जिसे जन्म से ही खुली हवा, तेज धूप, ताजा धुंआ...नालियों का सड़ांध और भी बहुत कुछ (सब प्राकृतिक) मिला...प्रिविलेज्ड !
जी हां, हालांकि ये कोई नई बात नहीं है, फिर भी...आज...मेरा मतलब कल से है...गुलाबी नगरी जयपुर में एक महिला ने अस्पताल परिसर में सड़क पर ही बच्चे को जन्म दे दिया...इसलिए नहीं कि उस मां को अपने बच्चे के नाम के साथ प्रिविलेज्ड जोड़ने का शौक था...बल्कि इसलिए कि राजस्थान के चांदपोल में कागजी तौर पर राजस्थान के सबसे बड़े महिला अस्पताल में उक्त महिला को एक अदद बेड नहीं उपलब्ध हो सका जिस पर वह अपने बच्चे को जन्म दे सके...
प्रसव से पहले महिला ने चिकित्सा विभाग के लोगों से बहुत मनुहार की...लेकिन उसकी बात किसी को नहीं सुनाई दी...हद तो तब हो गई जब महिला ने सड़क पर ही बच्चे को जन्म दे दिया और फिर भी कोई मदद को नहीं आया...बाद में एंबुलेंस के कुछ कर्मचारियों ने तरस खाकर महिला को अस्पताल में जगह दिलवाई...तब तक मां तो जैसे-तैसे सर्वाइव कर गई, लेकिन बच्चा प्रकृति का इतना स्नेह नहीं झेल पाया और जन्म के कुछ ही देर बाद उसकी मृत्यु हो गई....मामला खत्म !
हां, नियम तो यही कहता है कि बच्चा खत्म तो मामला भी खत्म...
लेकिन क्या सचमुच में ऐसे मामलों को खत्म मान लिया जा सकता है (मैं पहले भी कह चुका हूं कि ऐसी घटनाएं हर दूसरे दिन देखने को मिलती हैं)...
क्या सरकारें सिर्फ कागजी अस्पताल बनवाने, गुर्जर, मीणाओं को आरक्षण देने में ही व्यस्त रहेंगी...या कुछ नितांत प्राकृतिक हो चुके इन मामलों में कुछ ठोस कार्रवाई भी करेंगी....
मामला, कल भी अनसुलझा था...आज भी...क्योंकि सरकार और प्रशासन में कल भी बुर्जुआ ही बैठे थे और आज भी उन्हीं की हुकूमत है....कुछ सर्वहारा वहां तक पहुंचे भी, तो उन्होंने भी बुर्जुआ की ही टोपी पहन ली...तो आखिर विकल्प क्या होगा....इन प्रिविलेज्ड माओं और उनके प्रिविलेज्ड बच्चों का...
आलोक साहिल
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
गरीबों के पेट पर लात न मारो...
‘वडापाव’ एक नाम, ऐसा नाम जिसको सुनकर जहां अच्छे अच्छों के मुंह से लार निकलने लगता है...तो तमाम ऐसे भी हैं...जिन्हें अपने पेट भरने का ख्याल आने लगता है...
बाकी दुनिया भले ही इस शब्द से वाकिफ न हो (हालांकि ऐसा संभव नहीं क्योंकि हिंदी फिल्मों का प्रिय व्यंजन रहा है वड़ापाव) या थोड़ा कम वाकिफ हो...लेकिन जो लोग मुंबई नगरी से ताल्लुक रखते हैं...उनके लिए तो पेट भरने का सबसे सरल, सुलभ और सस्ता विकल्प है ‘वडापाव’...सस्ता से मतलब यह कि दिल्ली जैसे शहर में एक कप चाय के लिए जितना खर्च करना पड़ता है उतना ही वड़ापाव के लिए मुंबई में खर्च करना पड़ता रहा है...लेकिन अब शायद मुंबई का वड़ापाव दिल्ली की चाय पर भारी पड़ जाएगी...
कोई आश्चर्य वाली बात नहीं...बेतहाशा बढ़ी मंहगाई के दौर में भी गरीबों का सतत पोषक बना रहा वड़ापाव...अब कुछ और गरीबों का हवाला देकर महंगा होने जा रहा है...जी हां, दरअसल, महाराष्ट्र के कामगार कल्याण मंत्री के अनुसार बेकरी में काम करने वाले मजदूरों की मासिक आय न्यूनतम 4561 रुपए होनी चाहिए...जो कि मुंबई के बिरले बेकरियों में ही होता है (बात सिर्फ सामान्य बेकरियों की हो रही है)…तो अभी तक मजदूरों को 100 से 125 तक रोजाना देकर काम कराने वाले बेकरी मालिकों के लिए आफत यह है कि मजदूरों का वेतन बढ़ाएं कैसे...बकौल बेकरी मालिक (मुंबई बेकर्स एसोसिएशन से संबद्ध पदाधिकारी)...इस धंधे में मुनाफा भी इतना नहीं कि पाव का दाम बढ़ाए बगैर मजदूरों का वेतन बढ़ा दें...तो अभी तक समान्य रूप से 5 से 15 रुपए में मिलने वाला वड़ापाव अब 7 से 20 रुपए तक में मिलने लगेगा...यानी एक गरीब का पेट भरने के लिए दूसरे गरीब के पेट पर जोरदार लात...
हालांकि, बेकरी मालिकों की बात भी बहुत बेजां नहीं है...ऐसे वक्त में जब तेल से लेकर नमक...और चीनी से लेकर गाडी का किराया सब महंगा हो गया, तो भला वड़ापाव क्यों नहीं महंगा हो सकता...उनकी बात अपनी जगह सही है. उधर मंत्री महोदय की चिंता भी जायज है, बल्कि अनुकरणीय है कि गरीबों का वेतन बढ़ना चाहिए...लेकिन इन सबके बीच इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वड़ापाव सिर्फ एक खाने का सामान या मुंबई की विशेष पहचान भर नहीं...यह लाखों (कोरोड़ों) लोगों के पेट भरने का साधन भी है...तो लोगों के पेट से कहीं कोई गंदा मजाक न हो जाए...
कदम सरकार उठाए या बेकरी मालिक, या फिर कोई तीसरा (ठाकरे फैक्टर)...लेकिन सच यही है कि अगर वड़ापाव भी महंगा हो गया तो...मुंबई से जुड़ी कई कहावतों को फिर से गढञना होगा....जो कि शायद अधिक मुश्किल होगा...बनिस्बत इसके के सरकार इस दिशा में किसी विशेष उपाय की तरफ ध्यान दे...
आलोक साहिल
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
रामदेव बौरा गया है...
‘रामदेव बौरा गए हैं, वे अपनी राजनीतिक दवाई बेचने के चक्कर में जाने क्या-क्या बक रहे हैं...सिर्फ रामदेव ही नहीं...और भी तमाम बाबा सब बौरा गए हैं...’
बाबा रामदेव आजकल राजनीति में प्रवेश करने की अपनी योजनाओं को लेकर खासे चर्चे में हैं....वैसे रामदेव जी की चर्चा तो हमेशा ही छाई रही है...जिस दिन से उन्होंने योग को प्रोफेशन का रूप दिया...तब से वे न सिर्फ योगगुरू रह गए बल्कि...राखी सावंत, अमर सिंह के बाद (या शायद पहले, सटीक नहीं पता) मीडिया के सबसे चहेते और बिकने वाले चेहरे बन गए...कभी रजत शर्मा की अदालत में तो प्रभु चावला की सीधी बात में...हर जगह रामदेव ही रामदेव...
कभी सीमा पर जाकर उपदेश देते रामदेव, तो कभी होमोसेक्सुअल के बारे में अपनी राय जाहिर करते रामदेव...कभी लड़कों को कंट्रोल करने की हिदायत देते, तो कभी, तो कभी कुछ...और इन सब टंटों ने उन्हें सिर्फ योग गुरू नहीं रहने दिया...
आज की तारीख में, भारत के सबसे चर्चित चंद लोगों की फेहरिश्त में उनका नाम शुमार हो गया है...अच्छी बात यह है कि...एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जो उनकी बातों को सुनता और उन्हें गुनता है...रामदेव जी को लगा कि सही है...हम तो कुछ भी कर सकते हैं...(शायद कर भी जाएं, इंडिया के लोगों का कोई भरोसा नहीं...यहां देवगौड़ा और गुजराल जैसे महान लोग प्रधानमंत्री हुए हैं)
अभी तक राजनीति में व्याप्त गंदगी को दूर करने की बात करने वाले रामदेव अब खुद अपने छवि की आजमाइश करने के लिए मैदान में उतर पड़े हैं...अब उन्हें लगने लगा है कि देश का भला करने के लिए जरूरी है कि सत्ता में रहा जाए...राजनीति का मूल ककहरा उनकी समझ में आ गया है...(थैंक्स टू राम विलास पासवान एंड देवगौड़ा)
रामदेव राजनीति में कितने सफल होंगे, कितने असफल...इसका गणित तो बाद में लगेगा...लेकिन इतना जरूर है कि कुछ लोगों की जमी-जमाई राजनीतिक सत्ता पर आंच जरूर आ जाएगी...और यह ऐसा विषय है जिससे सभी स्थापित राजनीति दल चिंतित हैं...ऊपर से...रामदेव का रो-ब-रोज किसी नेता को खरी-खोटी सुनाने का सिलसिला, ये तो हद ही पार कर गया है...
तभी तो, पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव को एक सभा में मजबूरन कहना पड़ गया कि...
‘रामदेव बौरा गए हैं, वे अपनी राजनीतिक दवाई बेचने के चक्कर में जाने क्या-क्या बक रहे हैं.’
लालू यहीं नहीं रुके...उन्होंने रामदेव के साथ ही लगे हाथ अन्य सभी बाबाओं को भी जमकर खरी-खोटी सुना दी...हालांकि, लालू ऐसे नेता हैं...जो नींद में भी कूटनीतिक भाषा ही बोलते हैं...यानी बगैर तोले एक भई शब्द नहीं बोलते...लेकिन उनका यह बोलना थोड़ा कन्फ्यूज़ कर गया...और छोड़ गया
लाख टके का सवाल कि बौराया (दिमाग फिर जाना) कौन है,
बाबा रामदेव या लालू यादव ?
आलोक साहिल
खून मांगता पानी...
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून…चाहे वह इज्जत हो या जिंदगी....
गलत नहीं कहा जाता कि अगला विश्व युद्ध, पानी के लिए लड़ा जाएगा..सच कहें तो
जंग तो शुरू हो गई है...फर्क यह है कि इसका रूप अभी छद्म है...विश्वास नहीं होता, तो इन ताजा घटनाओं को देख लें...जो घटी हैं उस देश में जिसे पानी की उपलब्धता के मामले में प्रिविलेज प्राप्त...
मध्यप्रदेश के इंदौर में पानी के विवाद को लेकर एक लड़की की चाकू से मारकर हत्या कर दी गई...लड़की का अपराध इतना भर था कि उसने पड़ोस में रहने वाले एक युवक को अपने घर में लगे नलके से पानी भरने से इंकार कर दिया था...लड़की ने किसी खास खुन्नस के चलते मना नहीं किया...वह लड़का तो रोज पानी भरने आता था, लेकिन गर्मी के चलते पानी की कमी हो गई थी...जिस कारण से लड़की ने मना किया और फिर….अपनी जान गंवा दी...
उम्मीद की जा रही थी इस साल इंदौर में अच्छी बारिश होने से पानी की कमी नहीं होगी...लेकिन पानी कमी इस कदर हो गई कि बेचारी पूनम को पानी बचाने के एवज में अपनी जान गंवानी पड़ी...
एक और घटना, मध्य प्रदेश के ही जबलपुर में पानी विवाद को लेकर ही एक युवक पर जानलेवा हमला हुआ, जिसमें पीड़ित युवक की जान तो बच गई...लेकिन पानी की लड़ाई ने भरी जवानी में उसे अपाहिज बना दिया...बेचारा नितेश अपनी दोनों हथेलियां गंवा बैठा...
तो क्या कहें जंग शुरू हो गई या अभी कुछ वक्त का इंतजार है...
आलोक साहिल
रविवार, 28 मार्च 2010
नया गुजरात बनने तक...
देश के सबसे ताकतवर मुख्यमंत्री...अपेक्षाकृत बौने जांच दल के सामने पेश हो ही गए...जांच दल ने जीभरकर अपनी सालों की प्यास बुझाई...और घंटों हाल-चाल किए...एक-दो नहीं पूरे 9 घंटे तक हाल-चाल होता रहा...वह भी एक नहीं दो-दो सत्रों में....क्योंकि देश के सबसे उज्जवल प्रदेश के मुख्यमंत्री के पास रोज-रोज इतना वक्त थोड़े है कि वह रोज ऐसे आलतू-फालतू कामों के लिए समय निकालता फिरे.....
खैर, अब इससे एक बात तो साफ हो ही गई कि मोदी जी की क़ानून और संविधान में गहरी आस्था है...और साथ ही भारतीय संविधान में घोर विश्वास भी...तभी तो....वह एक अदने से जांच दल के सामने पेश होने में भी नहीं हिचकिचाए (अपने कद का ख्याल किए बिना)...क्योंकि SIT इतना ताकतवर आयोग नहीं कि उसके सामने पेश होना एकदम से मजबूरी ही हो...साथ ही भाजपा का भी एक ऐसी पार्टी होने का अहं बरकरार रहा, जो संविधान में सर्वाधिक आस्था रखती है...
बहरहाल, दूसरे चरण की पूछताछ के बाद जब रात के एक बजे करीब मोदी जी व्यापक हाल-चाल करके बाहर निकले तो काफी खुश और संतुष्ट दिखे...शायद मीटिंग सफल रही थी...और वैसे भी चाहे नानावटी हों या टाटा...या फिर अमिताभ ही क्यों न हो...आज तक रिकॉर्ड है, मोदी जी की मीटिंग कभी भी असफल नहीं हुई...अगर होती, तो गुजरात के अल्पसंख्यक आज वहीं थोड़े होते...और न ही वहां के बहुसंख्यक वैसी अवस्था में होते...
वैसे इस घटना से कई फायदे हुए...एक तरफ जहां कांग्रेस को इस घटना के बाद जनता के सामने भोकाल बनाने का मौका मिल गया...कि उसने आखिरकार मोदी को आठ सालों में पहली बार ही सही...किसी आयोग के सामने खड़ा तो कर ही दिया...उधर भाजपा में नया प्रशासनिक तंत्र बनने और फिर से अयोध्या मसले के उजागर होने के बाद कुछ ठोस चाहिए था...जो उसे मिल गया...बाकी काम तो उनके पढ़े-लिखे प्रवक्ता गण कर ही देंगे...सबका हित सध गया...
लेकिन कुछ लोगों का हित अभी बचा है...सहमे-सहमे और इंसानों की परछाईं तक से कांप जाने वाले कुछ जले-जलाए लोगों का इंतजार अभी भी बाकी है...जिनकी जिंदगी....उसी वक्त काली होनी शुरू हो गई थी, जिस दिन ट्रेन के कुछ डिब्बों और माचिस की कुछ तीलियों से निकली राख ने गुजरात को चमकाना शुरू कर दिया था...
इंतजार खत्म होगा..., कभी तो खत्म होगा...शायद तराजू लिए मूर्ति पर बंधी काली पट्टी एक दिन आंसुओं में भिंगकर उन जले हुए लोगों पर जमी कालिख पोतने के काम आएगी...और फिर शायद यह इंतजार हमेशा के लिए खत्म हो जाएगा...या शायद तब तक के लिए, जब तक कोई दूसरा गुजरात जन्म न ले ले...
आलोक साहिल
शुक्रवार, 26 मार्च 2010
कहां मर गईं संवेदनाएं...
अगर कोई छोटा-सा बच्चा किसी अन्य बच्चे को मार दे, तो आप क्या करेंगे ?...उसे डांटेंगे, थपकी लगाएंगे और समझाएंगे...शायद यही करेंगे न...वह भी जब उस बच्चे की उम्र महज 5 साल हो, तो शायद आप इनमें से कोई भी काम न करके सीधे उसे गोद में लेंगे और प्यार से समझाएंगे...
लेकिन इसके उलट अमेरिका की एक स्कूल टीचर ने अपने स्टूडेंट को ऐसी सजा सुनाई कि सोच कर मन सिहर जाता है कि आखिर मूल्यों के कुछ मायने रह भी गए हैं या नहीं...उस 5 साल के बच्चे की खता फकत इतनी थी कि उसने अपने क्लासमेट को मार दिया....उसपर टीचर ने क्लास के दसियों स्टूडेंट्स को उस मारने वाले लड़के के मुंह पर घूंसे मारने का आदेश दे दिया...ये सब सज़ा के नाम पर...जिसका कि उस मासूम को मतलब भी नहीं पता होगा...
टीचर-स्टूडेंट की बात होने के बावजूद मैं यहां...गुरू-शिष्य परंपरा की बात नहीं करूंगा...क्योंकि मुझे पता है अब पहले जैसी बात नहीं रही, लेकिन थोड़ी-सी इंसानियत तो जुटाई ही जा सकती है, जो ये फर्क करा सके कि किसी मासूम के साथ कैसा सलूक किया जाय...मैं नहीं जानता कि इस घटना के बाद उस बच्चे को सज़ा का मतलब पता पाएगा या नहीं...लेकिन इतना ज़रूर है कि इसके बाद उसे नफरत का पाठ ज़रूर कंठस्थ हो गया होगा...
यह घटना कोई नई या अनोखी नहीं है, हां तकलीफदेह ज़रूर हो सकती है...ऐसी ही तमाम घटनाएं अपने देश में भी समय-समय पर घटती रही हैं...अभी कुछ दिनों पहले ही एक टीचर ने एक मासूम छात्रा को ऐसी सजा सुनाई कि बच्ची की मौत ही हो गई...आनन-फानन में कोर्ट-कचहरी सब हुआ...लेकिन परिणाम कुछ नहीं आया...सच तो यह है कि इन घटनाओं में आनन-फानन में उठाए गए किसी भी कदम का कोई परिणाम निकल ही नहीं सकता...क्योंकि इसके लिए व्यापक तौर पर काम करने की ज़रूरत है...
ये रूटीन सी बात हो गई है...जब भी ऐसी घटनाएं घटती हैं, तुरत-फुरत में नए क़ानूनों को बनाने, सजा का प्रवधान करने और जागरुकता लाने जैसी न जाने कितनी बातें एकसाथ होने लगती हैं...और फिर मामला ठंडा होते ही...सबकुछ फेडआउट....
हालांकि तकरीबन हर देश में इस तरह की घटनाओं को रोकने के लिए नियम-क़ानून बनाए गए हैं, लेकिन क़ानून के मायने सिर्फ उनके लिए होते हैं...जिन्हें भगवान जैसी सत्ता में विश्वास...या उनसे डर होता है...(क़ानून का तो डर ही नहीं होता किसी में)...और ऐसे लोगों की संख्या के बारे में कोई भी कयास यथार्थ को इंगित नहीं कर सकता....परिणाम यह होता है कि ऐसी घटनाएं बदस्तूर जारी रहती हैं...
ऐसे में खुद से एक सवाल उठता है, क्या ज़रूरी नहीं कि बहुत क़ाबिल, बहुत सफल और महान बनने की दौड़ में अपने अंदर की थोड़ी संवेदना को भी बचा लें!
आलोक साहिल