शनिवार, 27 सितंबर 2008

जो कागज़ के फूल सजे हों....

14 सितम्बर हमारे देश में हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है.हरसाल की तरह इस साल भी हिन्दी दिवस आया और आकर चला गया.हरसाल की तरह इस बार भी हिन्दी का जन्म दिवस बड़ी धूम धाम से मना,मसलन,हिन्दी में काम को बढावा देने वाली खोखली घोषनाएँ,भिन्न भिन्न तरह के सम्मलेन,आयोजन वगैरह वगैरह.पर असल सवाल इसबार भी अनसुलझा रह गया कि क्या यह गुजरा साल हिन्दी के इतिहास में एक साल और जोड़ गया या उसकी उम्र से एक साल कम कर गया।
आज से लगभग ६ दशक पहले १४ सितम्बर को जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया तब राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने बड़े दिल से यह घोषणा की थी-
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी,
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी.
पर आज भी ये घोषणा साकार रूप लेने की बाट जोह रहा है.हमेशा से ही हिन्दी हमारे बोलचाल और संपर्क की भाषा रही है पर आज के समय में हिन्दी केवल उन लोगों की भाषा बनकर रह गई है जिन्हें या तो अंग्रेजी आती नहीं या फ़िर हिन्दी से कुछ ज्यादा ही लगाव है,ये वही लोग हैं जिन्हें पिछड़ा और सिरफिरा जैसे नाम दिए जाते हैं।
आज जब हमारा देश हर क्षेत्र में प्रगति कर रहा है,ऐसे में हमारी हिन्दी राजभाषा से राष्ट्रभाषा के सफर में कहाँ पिछड़ गई?क्या कुछ कमी रह गई इसके विकास में? आज दुनिया में जहाँ सभी विकसित और विकासशील देश अपनी भाषाओँ में काम करके दिनोंदिन प्रगति कर रहे हैं वहीँ हमारे देश में हिन्दी में काम करने से ही गुरेज किया जाता है,अधिकांश उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षण का एकमात्र माध्यम अंग्रेजी ही है.ऐसे में ज्यादा कुछ अच्छा उम्मीद करना ही बेमानी है.आज हिन्दी मिडिया के प्रसार ने काफ़ी हद तक लोगों को हिन्दी तक पहुँचने में अहम् भूमिका निभाई है इसी तरह अगर प्रशासनिक स्तर के कार्य भी हिन्दी में होते तो शायद सरकारें,आमजनता के प्रति ज्यादा जवाबदेह होतीं.पर.......
एक बड़ी अजीब बात है कि हमारे देश के संविधान का प्रारूप ही अंग्रेजी में बना,संविधान सभा की बहस का अधिकांश हिस्सा भी अंग्रेजी में ही प्रकाशित हुआ,यहाँ तक कि हिन्दी के प्रबल पक्षधर भी अंग्रेजी में ही बरसे.शायद यही कारण है कि आजादी के ६१ सालों बाद भी भारत का विधितंत्र अंग्रेजी और उर्दू में ही चलता है.यहाँ तक कि देश के उच्चतम और उच्च न्यायालयों का सारा काम सारा अंग्रेजी में ही होता है ऐसे में आमजनता कानूनी दांवपेंचों से वाकिफ नहीं हो पाती और कानून के दलदल में फंसती जाती है।
अंग्रेजी के कारण हमारा बहुत नुकसान हुआ तो उम्मीद से कहीं ज्यादा लाभ भी मिला इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि देश में हिन्दी का पठन पाठन ही बंद कर दिया जाए,उससे नफरत किया जाए,बल्कि उसे उतना ही महत्व दिया जाए कि हमारी हिन्दी भी बची रहे.आज जब पश्चिम के देशों में भी हिन्दी का डंका बज रहा है,यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को सातवीं भाषा के रूप में मान्यता देने की कवायद भी चल रही है,ऐसे में अपने ही देश में हिन्दी की उपेक्षा देखकर एक शेर याद आता है-
सच पूछो तो यूँ लगती है हिन्दी हिंदुस्तान में,
कागज के फूल सजे हों शीशे के गुलदान में.
आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

इस्लामी आतंकवाद....अधिक खतरनाक कौन?

आज जहाँ एक तरफ़ इस्लामी आतंकवाद ने देश को झकझोर कर रखा हुआ है वहीँ दूसरी तरफ़ एक अन्य तरह का आतंकवाद भी अपने लिए एक खास तरह की जमीन तैयार करने में लगा हुआ है।यह अलग बात है कि अभी तक इस नए तरह के आतंकवाद को आधिकारिक तौर पर आतंकवाद का टैग नहीं मिला है।
जिस तरह इस्लामी आतंकवाद ने देश में असुरक्षा और दहशत का माहौल पैदा कर रखा है,उसी तरह इस नए वाले ने भी देश में रहने वाले एक खास संप्रदाय/धर्म के लोगों को खौफजदा कर रखा है,पहला वाला भी एक धर्म की आड़ में चलाया जा रहा है,तो दूसरे के मूल में भी कहीं न कहीं धर्म ही है।थोड़ा फर्क है दोनों में तो यह कि पहला वाला अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा किया जा रहा है तो दूसरा बहुसंख्यकों द्वारा,पहले वाले में आतंक फैलाने वाला संप्रदाय ख़ुद ही सकते में है तो दूसरे वाले में आतंक के शिकार संप्रदाय के लोग।
अब अगर नियम कानून,समाजशास्त्र आदि की बात करें तो आतंकवाद के सन्दर्भ में यह बात बहुत अजीब नहीं लगती कि एक अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इसमें शामिल हों क्योंकि हो सकता है बहुसंख्यक नीत नीतियों ने किसी रूप में उनके साथ ज्यादती की हो या उनकी भावनाएं आहत हुई हों,ऐसा सम्भव है(जरुरी नहीं कि ऐसा ही होना चाहिए),शायद यही आतंकवाद को जन्म देने वाले कारक हैं,पर जब बहुसंख्यक समुदाय के लोग ऐसा करने लग जायें तो समझ नहीं आता कि क्या कारण हो सकता है,या कैसे इनसे बचा जाए?
अगर बात समझ नहीं आई तो पिछले कुछ समय से इसाई संप्रदाय के लोगो और उनके आस्था के केन्द्र चर्चों पर होने वाले लगता हमलों को जेहन में लाईये।अरे,दूर कहाँ जा रहे हैं,यहीं उडीसा,कर्नाटका वगैरह कहीं भी चले जाईये.
आखिरी सवाल- अब आखिरी सवाल यह है कि अधिक खतरनाक कौन,जिसे नाम दे दिया गया है वो या जो अभी भी बेनाम है?और क्या दूसरे वाले को भी एक नाम की दरकार है?
आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

मुठभेड़ चल रही,दो मारे गए,एक गिरफ्तार

दिल्ली में हुए हालिया बम धमाके, दिल्ली पुलिस समेत केन्द्रीय सत्ता तक के लिए सरदर्द बने हुए थे,कपड़े बदलने और विभिन्न तरह की लापरवाही के चलते भी गृहमंत्री शिवराज पाटिल की खासी किरकिरी हो रही थी,इन सबसे परे उधर दिल्ली पुलिस अपने अब तक के सबसे बड़े सरदर्द से गुजर रही थी और अपने दामन पर और कोई भी छींटा नहीं आने देना चाहती थी यही कारण था कि घटना के तकरीबन दो दिन बाद जाकर संदिग्धों का स्केच जारी किया गया जो अमूमन घटना के तत्काल बाद कर दिया जाता है,और जारी किए गए स्केच की खास बात यह रही की वह स्केच न होकर होकर पूरा का पूरा फोटो ही था जो विभिन्न कलाकारों की मदद से बनवाया गया था।था,जो चीख चीख कर कह रहे थे कि इसबार दिल्ली पुलिस के इरादे क्या हैं,वे कोई भी रिश्क नहीं लेना चाहते थे,इसीलिए हरकाम बहुत सफाई के साथ किया ।
आखिरकार दिल्ली पुलिस की मेहनत रंग लायी और जोरदार/मुकम्मल मुखबिरी ने पहुँचा दिया दिल्ली पुलिस को आतंकियों की गिरेबान तक।कई दिनों से चल रही खोजबीन और निशानदेही के परिणाम स्वरुप जब पुलिस को पता चला कि आतंकी जामिया मिल्लिया इस्लामिया के बगल/पीछे जामिया नगर और बाटला हाउस इलाकों में छिपे हैं तो बेहद व्यस्थित तरीके से पूरी तयारी केसाथ आज सुबह ११ बजे पुलिस ने बाटला हाउस पर धावा बोला,दिल्ली पुलिस का साथ देने के लिए एन एस जी कि टीम भी पहुँच चुकी है। अभी तक इन धमाकों के तथाकथित मास्टर माईंड तौकीर का दाहिना हाँथ कहा जाने वाला अतीक तथा एक और आतंकी सैफ ढेर किए जा चुके हैं। जबकि जामिया नगर के खलीला मस्जिद के पास स्थित मकान नम्बर एल-१८ में छिपे आतंकियों से पुलिस की मुठभेड़ जारी है,एक अन्य सफलता के तौर पर एक आतंकी की गिरफ्तारी भी हो गई है।उम्मीद कि जा सकती है पूर्व कि घटनाओं से सबक लेते हुए दिल्ली पुलिस ने जो मेहनत कि है वो अंजाम तक जायेगी.

आलोक सिंह "साहिल"

शनिवार, 13 सितंबर 2008

धमाकों ने फ़िर किया बेहाल

धमाकों ने फ़िर दहलाया दिल्ली को।दिल्ली के ३ पाश जगहों पर हुए एक के बाद एक ५ धमाके।ढेरों घायल। एकबार फ़िर आतंकवादियों ने अपने नापाक मंसूबों को अंजाम दे दिया और दहल उठा हमारा देश।
आज शनिवार का दिन है,वीकेन्ड का पहला दिन।हफ्ते भर के काम काम के बोझ से थके लोगों के लिए राहत की साँस लेने का दिन।हफ्ते भर की भागमभाग से उबरकर मस्ती करने का दिन।वो दिन जब लोग अपने घरों से बाहर निकलकर सपरिवार घूमने-फिरने और मार्केटिंग करने का प्लान बनाते हैं,पर शायद इस देश के दुश्मनों को हमारा सुकून रास नहीं आता।अभी पिछले दिनों पूरे देश के विभिन्न जगहों पर हुए धमाकों के चोट से लोग उबर भी नहीं पाए थे कि इन नामुरादों कर डाला एकबार फ़िर धमाका और इस बार निशाने पर थे राजधानी दिल्ली के वो खास जगह जहाँ छुट्टी के दिनों में खासी भीड़ रहती है।
ये जगह हैं
१।करोल बाग का गफ्फार मार्केट
२।ग्रेटर कैलाश-१ का एम् ब्लाक
३।कनाट प्लेस के पास बारहखम्बा रोड और सेन्ट्रल पार्क।
अभी तक पुष्ट तौर पर किसी के हताहत होने की सूचना तो नही मिली है लेकिन कम से कम १० से अधिक लोगों के मारे जाने की आशंका है.पहला धमाका करोल बाग़ के गफ्फार मार्केट में हुआ जहाँ एक ऑटो के सीएनजी सिलिंडर फटने से धमाका हुआ.आशंका जताई जा रही थी कि शायद सिलिंडर फटने से मामूली विस्फोट हुआ हो,तभी ग्रेटर कैलाश-१ में धमाका हो गया,लोग कुछ समझ पाते तबतक अगला धमाका बारहखम्बा रोड पर गोपाल दास बिल्डिंग के पास हो चुका था.पुलिस मौके पर पहुँची घायलों को अस्पतालों तक ले जाने की कवायद में लगी ही हुई थी कि कनाट प्लेस के सेन्ट्रल पार्क और ग्रेटर कैलाश में धमाके हो गए।
ध्यान रहे कि कनाट प्लेस पर जहाँ धमाका हुआ वह मेट्रो स्टेसन के बिल्कुल करीब की जगह है,इससे यह साफ़ हो जाता है कि धामको का मकसद कितना भयानक था अभी पूरा पुलिस विभाग घायलों को अस्पतालों तक पहुँचने में लगा है.दुआ की जा सकती है कि अब धमाकों का सिलसिला कम से कम आज तक के लिए थम जाए ताकि घायलों को उपचार के लिए अस्पतालों तक पहुँचाया जा सके.
तक यह बात पता नहीं लग पाई है कि इस सीरियल ब्लास्ट का जिम्मेदार कौन है, पर इतने सालों के अनुभवों का ख्याल रखते हुए अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल काम नहीं.असल मुश्किल है उन नामुरादों को समझाना कि इंसानी खून बहाकर लोगो में दहशत पैदा कर के कोई भी खुशी हासिल नहीं की जा सकती.काश! कि उन्हें समझ आ जाता.

आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

१४४० मिनट....११३२ शिलाएं!!

दुनिया बहुत ही रंग-बिरंगी है।कब कहा क्या देखने सुनने को मिल जाए अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल।ऐसा ही कुछ गुजरा आज मध्य प्रदेश के सागर के रहेली में,जहाँ के विधायक गोपाल भार्गव ने कर डाले एक ही साथ(एक ही दिन में,महज ८६४०० सेकेंड्स या यूँ कहें १४४० मिनटों में) ११३२ परियोजनाओं के शिलान्यास।मान्यवर भार्गव हाल फिलहाल एम।पी। के कृषि मंत्री हैं,साथ ही अन्य दो विभागों की जिम्मेदारी भी उनके मजबूत कन्धों पर है. बात करें अतीत की तो, भार्गव साहब, सन १९८५ से ही रहेली से विधायक बनते आ रहे हैं पर आज भी वहां सड़क,स्कूल,अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं का खासा अभाव है,आज तक जब कुछ नही हुआ तो फ़िर क्या जरुरत आन पड़ी कि उन्होंने एक ही दिन में इतने सारे शिलान्यास कर डाले? मुद्दा,या फ़िर बात यह नहीं कि महज एक दिन में किए गए इतने परियोजनाओं के लिए आवंटित फकत २०० करोड़ रुपयों से क्या कुछ हो पायेगा,बात दरअसल यह है कि जो काम आज तक नही कर पाये वो अभी यकायक इतनी जल्दबाजी में क्यों?कहीं ये कोई सियासी मज़बूरी तो नही? जी हाँ,आपको याद दिला दें कि आने वाले नवम्बर महीने में वहाँ विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं.तो,अगर उन्होंने सारे शिलान्यास नहीं किए तो फ़िर चुनाव आचार संहिता आड़े आ जायेगी.समस्या फ़िर भी यथावत कि विधायक तो पिछले पौने पॉँच सालों से हैं फ़िर अभी क्यों? यह जानने के लिए जरुरत है इस मामले को एक नौटंकी से परे हटकर देखने की.ऐसा करने पर हम पाएंगे कि इन सबके पीछे कहीं न कहीं हम भारतीय ख़ुद ही जिम्मेदार हैं.चौंकिए मत! एक सवाल का जवाब दीजिये, सब आसान हो जाएगा.आज तक के भारतीय इतिहास में एक-आध अपवाद घटनाओं(दुर्घटनाओ) को छोड़ दें तो कौन सा ऐसा चुनाव है जो विकास कार्यों के नाम पर जीता गया? आज की तारीख में कौन सा ऐसा नेता है जो फकत विकास कार्यों के नाम पर चुनाव जितने का माद्दा रखता है? जवाब- शायद,शायद क्या,कोई नहीं. अब कारण क्या है?अन्य देशों में तो ऐसा होता है फ़िर हमारे यहाँ क्यों नहीं?दरअसल, हम भारतीयों की याददाश्त बहुत ही कमजोर होती है,हमें बड़ी से बड़ी घटनाओं को भुला देने के लिए चंद हफ्ते या महीने ही काफ़ी होते हैं.ऐसे में कोई भी राजनीतिक शख्स जब कोई अच्छा कम तभी करता है जब चुनावी तौर पर कोई फायदा होने वाला हो. पर एक समस्या अब भी बची रह गई,की ठीक है काम करना था तो करते पर इतने सारे की क्या जरुरत थी? साधारण सी बात है.क्या आपको लगता है,सिर्फ़ २०० करोड़ रुपयों और फकत २ महीनो में सारे काम पूरे हो जायेंगे?अगर ऐसा लगता है तो माफ़ कीजियेगा पर आपको बहुत ग़लत लगता है. बात यह है कि,भार्गव साहब को पता है चुनाव होने तक में कोई भी परियोजना पूरी नहीं हो पाने वाली फ़िर फायदा क्या,तो उन्होंने उठा लिया एक ऐतिहासिक कदम.लोग काम के लिए न सही कम से कम इतनी बड़ी घटना के रूप में तो याद रखेंगे ही,और इतना काफ़ी है उनकी चुनावी नैया पार हो जाने के लिए.और चाहिए भी क्या? भगवान,उनकी इस नेक कामना को पूर्ण करे.

आलोक सिंह "साहिल"

बुधवार, 3 सितंबर 2008

लालू का तमाशा:धूमिल हुई बाढ़ पीडितों की आशा

लालू का तमाशा:धूमिल हुई बाढ़ पीडितों की आशा
आज बाढ़ ने बिहार को बुरी तरह झकझोर कर रखा हुआ है।16 जिलों के 20 लाख से अधिक लोग सीधे तौर पर बाढ़ की चपेट में हैं,20 हजार से अधिक लोग लापता है,ढाई लाख एकड़ से अधिक की कृषि भूमि खाक हो चुकी है,राहत कैम्पों की हालत खस्ता है,लोग पत्ते खाकर जहरीले जानवरों के बीच जिंदगी को सहेज पाने की जद्दोजहद कर रहे हैं,और इस बीच वहां पैदा हो रहे बच्चे और उनकी माएं मूलभूत जरूरतों से भी महरूम हैं।
ऐसे हालात में,सेना और नौसेना के जवान प्राणपण से लोगों को बचाने में लगे हुए हैं,सीआरपीऍफ़ के जवान एक दिन की तनख्वाह दे रहे हैं,सार्वजनिक क्षेत्र की 12 कम्पनियाँ 30 करोड़ दे रही हैं,पंजाब,हरियाणा से लगाए देश के कोने कोने से सहायत मिल रही है,यहाँ तक कि सरहद के पार से भी मदद के लिए हाँथ आगे आ रहे हैं।
ऐसे में बिहार के अपने खासमखास,अपने राजनीतिक गोलगप्पे में बाढ़ का चटपटा पानी भरकर बेचने में लगे हुए हैं।
कहते हैं,राजनीति जो न कराये कम है।
एक तरफ़ जहाँ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव,राहत कार्यों में देरी को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर दोषारोपण कर रहे हैं,वहीँ नीतीश कुमार,लालू पर बाढ़ की राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं.नेताओं के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं.पर,नैतिकता की पराकाष्ठा तो तब पार हो गई जब बाढ़-ग्रस्त बिहार के दौरे पर गए लालू यादव ने लग्जरी गाड़ी में बैठकर भूखे-नंगे बच्चों को 500 का नोट थमाकर लालू जिंदाबाद के नारे लगवाए।इसे क्या क्या कहा जा सकता है?
सच पूछिये तो,बाढ़ पीडितो के दर्द को यूँ तमाशा का रूप देना लालू जैसे बड़े नेताओं के बस की ही बात है.पर सवाल असल यह है कि वहां की जनता आस लगाये तो किससे,जब उनके अपने ही उनके ग़मों का माखौल उड़ाने पर अमादा हैं?

आलोक सिंह "साहिल"