हमारी हिन्दी और डोपिंग... बदलती हुई दुनिया के साथ कदमताल मिलाने के चक्कर में हमने पश्चिमी सभ्यता को इस तरह अपनाना शुरू कर दिया कि,अब दूर से ही हमसे पश्चिम की बू आने लगी है.यूँ कहें,हम ख़ुद ही आधे अधूरे पश्चिमी हो गए हैं. बात हमारे पहनावे की हो,खान पान की आदतों की या फ़िर हमारी भाषा की,हर लिहाज से हम बिचबिचवा(दोयम) पश्चिमी लगते हैं. बात भाषा की- हैं तो हम मूलरूप से हिन्दीभाषी,पर अंग्रेजी की डोपिंग(मिलावट) इस कदर हो गई है कि यह समझ पाना मुश्किल हो चला है कि अमुक व्यक्ति हिन्दी बोल रहा है या अंग्रेजी?चलिए,एक अच्छी सुविधा तो हुई,नई भाषा के लिए नया नामकरण,"हिंग्रेजी" किसी भी भाषा को ग्राह्य बनाने के लिए डोपिंग समझ में आती है पर ऐसी भी क्या की मूल भाषा ही धूंधनी पड़ जाए. इसे एक उदहारण से समझा जा सकता है,ग्वाले(दूध बेचने वाले) भाईयों का जन्मसिद्ध अधिकार है दूध में पानी मिलाना,यह बहुत कुछ वैसा ही जैसे नेताओं द्वारा घोटालों को अंजाम देना.जी हाँ,तो पहले के ग्वाले दूध में पानी मिलाते थे पर आधुनिक कल्चर में ख़ुद को ढालते हुए आजकल वे पानी में दूध मिलाने लगे हैं. तो बात स्पष्ट है,पहले हमारी हिन्दी को अधिक लोकप्रिय और ग्राह्य बनाने के लिए उसमें अरबी,फारसी,उर्दू,पोश्तो आदि के साथ अंग्रेजी भी मिलाया जाने लगा पर अब तो लगता है कि एक सिर-पूंछविहीन खिचडी भाषा को और रोचक व् मसालेदार बनाने के लिए उसमें हिन्दी भी मिला लिया जाता है,सनद रहे,नाम फ़िर भी हिन्दी ही रहता है. हिन्दी की बात चल रही है तो एक घटना यद् आ रही है.आस्ट्रेलियाई क्रिकेटर ब्रेट ली ने अपने भारत प्रेम को और अधिक पुख्ता करने के लिए यहाँ की प्रचलित भाषा हिन्दी सीखने के लिए बहुत दिनों महीनों तक मेहनत की पर असफल रहे.एक पत्रकार ने जब उनसे इस बाबत पूछा तो उनका जवाब था-"यार,मैं आजतक हिन्दी नहीं सीख पाया.यहाँ के लोग हिन्दी बोलते ही कहाँ हैं?हिन्दी में तो अधिकतर अंग्रेजी ही रहती है.सीखूं तो सीखूं कैसे?" बात अब पहले से अधिक स्पष्ट हो चुकी होगी.तो अब समस्या यह है कि आख़िर वजह क्या है, तो कहीं न कहीं यह हमारी अमेरिकी या यूरोपीय न होने की कुंठा में ही निहित है(हम भारत में क्यों जन्मे?हम औरों से बेहतर हैं.जाने किससे....?). मैं मानता हूँ कि किसी भी भाषा के विकास के लिए उसका अपभ्रंशित होना कहीं न कहीं फायदेमंद होता है,पर ऐसा भी क्या अपभ्रंश कि हमारी हिन्दी का अंश भी तलाशना मुश्किल हो जाए.
आलोक सिंह "साहिल"
सोमवार, 23 जून 2008
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7 टिप्पणियां:
बहुत सही लिखा है आपने हिन्दी भाषा की यह दुर्गति बुरी लगती है नए बच्चो में तो हिन्दी बोलना ही जैसे शर्म की बात है ..
उम्मीद ही कर सकते हैं की हिन्दी सही में जब अपनी सही ढंग से मातरभाषा कहलाएगी
बिल्कुल सही समस्या उठाई है आपने आलोक जी.इस डोपिंग की समस्या ने तो हिन्दी की बखिया ही उधेड़ दी है.
रोना आता है आलोक भाई,हिन्दी की दुर्गति पर.क्या करें कहीं न कहीं इसमें हमारी रोटी की मज़बूरी भी छुपी है.
bahut sahi sawal hai,hinglish ek nayi paribhasha ban gayi hai,ranju ji se bhi sehmat hun,magar bolte samay hindi mein bhi kuch english alfaz aadatan aahi jate hai,agar china japan ki tarah bharat mein bhi hindi mein shikshan pura ho aisi sakti ho to shayad kuch baat bane.ye sach katayi nahi nakara jaa sakta ki english hamari annadata hai,agar wo na aati hum kabhi medical na padh pate;)
रंजना जी और महक जी,दोनों की बातों से मैं सहमत हूँ.हिन्दी की यह हालत हमने बनाई है तो हम ही इसे उठाएंगे भी.नेट पर हिन्दी का उपयोग इस डिश में एक सार्थक पहल है.
हालात तो ऐसे ही हैं-मगर काफी सार्थक प्रयास भी हो रहे हैं. कभी बदलाव आये शायद.
अरे वाह! आपकी कलम तो बहुत जानदार है.. नियमित लिखते रहिये..
हाँ, कभी हमारी जरूरत पड़े तो याद कीजियेगा
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