कहते हैं भारत प्राकृतिक रूप से बहुत ही प्रिविलेज्ड है....तमाम नदियां हैं...पर्वत श्रेणियां हैं...और भी ऐसा बहुत कुछ है हमारे भारत में जिस पर नाज करवाने के लिए बचपन से ही हमारे स्कूली किताबों के पन्ने हमें मजबूर करते रहे हैं...हम हुए भी...लेकिन जब इस प्रिविलेज्ड और प्राकृतिक भारत में कोई महिला सड़क पर बिल्कुल प्राकृतिक तरीके से बच्चे को जन्म दे दे, तो क्या कहेंगे...
एक और विशुद्ध प्रिविलेज्ड और प्राकृतिक बच्चा...जिसे जन्म से ही खुली हवा, तेज धूप, ताजा धुंआ...नालियों का सड़ांध और भी बहुत कुछ (सब प्राकृतिक) मिला...प्रिविलेज्ड !
जी हां, हालांकि ये कोई नई बात नहीं है, फिर भी...आज...मेरा मतलब कल से है...गुलाबी नगरी जयपुर में एक महिला ने अस्पताल परिसर में सड़क पर ही बच्चे को जन्म दे दिया...इसलिए नहीं कि उस मां को अपने बच्चे के नाम के साथ प्रिविलेज्ड जोड़ने का शौक था...बल्कि इसलिए कि राजस्थान के चांदपोल में कागजी तौर पर राजस्थान के सबसे बड़े महिला अस्पताल में उक्त महिला को एक अदद बेड नहीं उपलब्ध हो सका जिस पर वह अपने बच्चे को जन्म दे सके...
प्रसव से पहले महिला ने चिकित्सा विभाग के लोगों से बहुत मनुहार की...लेकिन उसकी बात किसी को नहीं सुनाई दी...हद तो तब हो गई जब महिला ने सड़क पर ही बच्चे को जन्म दे दिया और फिर भी कोई मदद को नहीं आया...बाद में एंबुलेंस के कुछ कर्मचारियों ने तरस खाकर महिला को अस्पताल में जगह दिलवाई...तब तक मां तो जैसे-तैसे सर्वाइव कर गई, लेकिन बच्चा प्रकृति का इतना स्नेह नहीं झेल पाया और जन्म के कुछ ही देर बाद उसकी मृत्यु हो गई....मामला खत्म !
हां, नियम तो यही कहता है कि बच्चा खत्म तो मामला भी खत्म...
लेकिन क्या सचमुच में ऐसे मामलों को खत्म मान लिया जा सकता है (मैं पहले भी कह चुका हूं कि ऐसी घटनाएं हर दूसरे दिन देखने को मिलती हैं)...
क्या सरकारें सिर्फ कागजी अस्पताल बनवाने, गुर्जर, मीणाओं को आरक्षण देने में ही व्यस्त रहेंगी...या कुछ नितांत प्राकृतिक हो चुके इन मामलों में कुछ ठोस कार्रवाई भी करेंगी....
मामला, कल भी अनसुलझा था...आज भी...क्योंकि सरकार और प्रशासन में कल भी बुर्जुआ ही बैठे थे और आज भी उन्हीं की हुकूमत है....कुछ सर्वहारा वहां तक पहुंचे भी, तो उन्होंने भी बुर्जुआ की ही टोपी पहन ली...तो आखिर विकल्प क्या होगा....इन प्रिविलेज्ड माओं और उनके प्रिविलेज्ड बच्चों का...
आलोक साहिल
रविवार, 4 अप्रैल 2010
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
गरीबों के पेट पर लात न मारो...
‘वडापाव’ एक नाम, ऐसा नाम जिसको सुनकर जहां अच्छे अच्छों के मुंह से लार निकलने लगता है...तो तमाम ऐसे भी हैं...जिन्हें अपने पेट भरने का ख्याल आने लगता है...
बाकी दुनिया भले ही इस शब्द से वाकिफ न हो (हालांकि ऐसा संभव नहीं क्योंकि हिंदी फिल्मों का प्रिय व्यंजन रहा है वड़ापाव) या थोड़ा कम वाकिफ हो...लेकिन जो लोग मुंबई नगरी से ताल्लुक रखते हैं...उनके लिए तो पेट भरने का सबसे सरल, सुलभ और सस्ता विकल्प है ‘वडापाव’...सस्ता से मतलब यह कि दिल्ली जैसे शहर में एक कप चाय के लिए जितना खर्च करना पड़ता है उतना ही वड़ापाव के लिए मुंबई में खर्च करना पड़ता रहा है...लेकिन अब शायद मुंबई का वड़ापाव दिल्ली की चाय पर भारी पड़ जाएगी...
कोई आश्चर्य वाली बात नहीं...बेतहाशा बढ़ी मंहगाई के दौर में भी गरीबों का सतत पोषक बना रहा वड़ापाव...अब कुछ और गरीबों का हवाला देकर महंगा होने जा रहा है...जी हां, दरअसल, महाराष्ट्र के कामगार कल्याण मंत्री के अनुसार बेकरी में काम करने वाले मजदूरों की मासिक आय न्यूनतम 4561 रुपए होनी चाहिए...जो कि मुंबई के बिरले बेकरियों में ही होता है (बात सिर्फ सामान्य बेकरियों की हो रही है)…तो अभी तक मजदूरों को 100 से 125 तक रोजाना देकर काम कराने वाले बेकरी मालिकों के लिए आफत यह है कि मजदूरों का वेतन बढ़ाएं कैसे...बकौल बेकरी मालिक (मुंबई बेकर्स एसोसिएशन से संबद्ध पदाधिकारी)...इस धंधे में मुनाफा भी इतना नहीं कि पाव का दाम बढ़ाए बगैर मजदूरों का वेतन बढ़ा दें...तो अभी तक समान्य रूप से 5 से 15 रुपए में मिलने वाला वड़ापाव अब 7 से 20 रुपए तक में मिलने लगेगा...यानी एक गरीब का पेट भरने के लिए दूसरे गरीब के पेट पर जोरदार लात...
हालांकि, बेकरी मालिकों की बात भी बहुत बेजां नहीं है...ऐसे वक्त में जब तेल से लेकर नमक...और चीनी से लेकर गाडी का किराया सब महंगा हो गया, तो भला वड़ापाव क्यों नहीं महंगा हो सकता...उनकी बात अपनी जगह सही है. उधर मंत्री महोदय की चिंता भी जायज है, बल्कि अनुकरणीय है कि गरीबों का वेतन बढ़ना चाहिए...लेकिन इन सबके बीच इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वड़ापाव सिर्फ एक खाने का सामान या मुंबई की विशेष पहचान भर नहीं...यह लाखों (कोरोड़ों) लोगों के पेट भरने का साधन भी है...तो लोगों के पेट से कहीं कोई गंदा मजाक न हो जाए...
कदम सरकार उठाए या बेकरी मालिक, या फिर कोई तीसरा (ठाकरे फैक्टर)...लेकिन सच यही है कि अगर वड़ापाव भी महंगा हो गया तो...मुंबई से जुड़ी कई कहावतों को फिर से गढञना होगा....जो कि शायद अधिक मुश्किल होगा...बनिस्बत इसके के सरकार इस दिशा में किसी विशेष उपाय की तरफ ध्यान दे...
आलोक साहिल
गुरुवार, 1 अप्रैल 2010
रामदेव बौरा गया है...
‘रामदेव बौरा गए हैं, वे अपनी राजनीतिक दवाई बेचने के चक्कर में जाने क्या-क्या बक रहे हैं...सिर्फ रामदेव ही नहीं...और भी तमाम बाबा सब बौरा गए हैं...’
बाबा रामदेव आजकल राजनीति में प्रवेश करने की अपनी योजनाओं को लेकर खासे चर्चे में हैं....वैसे रामदेव जी की चर्चा तो हमेशा ही छाई रही है...जिस दिन से उन्होंने योग को प्रोफेशन का रूप दिया...तब से वे न सिर्फ योगगुरू रह गए बल्कि...राखी सावंत, अमर सिंह के बाद (या शायद पहले, सटीक नहीं पता) मीडिया के सबसे चहेते और बिकने वाले चेहरे बन गए...कभी रजत शर्मा की अदालत में तो प्रभु चावला की सीधी बात में...हर जगह रामदेव ही रामदेव...
कभी सीमा पर जाकर उपदेश देते रामदेव, तो कभी होमोसेक्सुअल के बारे में अपनी राय जाहिर करते रामदेव...कभी लड़कों को कंट्रोल करने की हिदायत देते, तो कभी, तो कभी कुछ...और इन सब टंटों ने उन्हें सिर्फ योग गुरू नहीं रहने दिया...
आज की तारीख में, भारत के सबसे चर्चित चंद लोगों की फेहरिश्त में उनका नाम शुमार हो गया है...अच्छी बात यह है कि...एक बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है, जो उनकी बातों को सुनता और उन्हें गुनता है...रामदेव जी को लगा कि सही है...हम तो कुछ भी कर सकते हैं...(शायद कर भी जाएं, इंडिया के लोगों का कोई भरोसा नहीं...यहां देवगौड़ा और गुजराल जैसे महान लोग प्रधानमंत्री हुए हैं)
अभी तक राजनीति में व्याप्त गंदगी को दूर करने की बात करने वाले रामदेव अब खुद अपने छवि की आजमाइश करने के लिए मैदान में उतर पड़े हैं...अब उन्हें लगने लगा है कि देश का भला करने के लिए जरूरी है कि सत्ता में रहा जाए...राजनीति का मूल ककहरा उनकी समझ में आ गया है...(थैंक्स टू राम विलास पासवान एंड देवगौड़ा)
रामदेव राजनीति में कितने सफल होंगे, कितने असफल...इसका गणित तो बाद में लगेगा...लेकिन इतना जरूर है कि कुछ लोगों की जमी-जमाई राजनीतिक सत्ता पर आंच जरूर आ जाएगी...और यह ऐसा विषय है जिससे सभी स्थापित राजनीति दल चिंतित हैं...ऊपर से...रामदेव का रो-ब-रोज किसी नेता को खरी-खोटी सुनाने का सिलसिला, ये तो हद ही पार कर गया है...
तभी तो, पूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव को एक सभा में मजबूरन कहना पड़ गया कि...
‘रामदेव बौरा गए हैं, वे अपनी राजनीतिक दवाई बेचने के चक्कर में जाने क्या-क्या बक रहे हैं.’
लालू यहीं नहीं रुके...उन्होंने रामदेव के साथ ही लगे हाथ अन्य सभी बाबाओं को भी जमकर खरी-खोटी सुना दी...हालांकि, लालू ऐसे नेता हैं...जो नींद में भी कूटनीतिक भाषा ही बोलते हैं...यानी बगैर तोले एक भई शब्द नहीं बोलते...लेकिन उनका यह बोलना थोड़ा कन्फ्यूज़ कर गया...और छोड़ गया
लाख टके का सवाल कि बौराया (दिमाग फिर जाना) कौन है,
बाबा रामदेव या लालू यादव ?
आलोक साहिल
खून मांगता पानी...
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून…चाहे वह इज्जत हो या जिंदगी....
गलत नहीं कहा जाता कि अगला विश्व युद्ध, पानी के लिए लड़ा जाएगा..सच कहें तो
जंग तो शुरू हो गई है...फर्क यह है कि इसका रूप अभी छद्म है...विश्वास नहीं होता, तो इन ताजा घटनाओं को देख लें...जो घटी हैं उस देश में जिसे पानी की उपलब्धता के मामले में प्रिविलेज प्राप्त...
मध्यप्रदेश के इंदौर में पानी के विवाद को लेकर एक लड़की की चाकू से मारकर हत्या कर दी गई...लड़की का अपराध इतना भर था कि उसने पड़ोस में रहने वाले एक युवक को अपने घर में लगे नलके से पानी भरने से इंकार कर दिया था...लड़की ने किसी खास खुन्नस के चलते मना नहीं किया...वह लड़का तो रोज पानी भरने आता था, लेकिन गर्मी के चलते पानी की कमी हो गई थी...जिस कारण से लड़की ने मना किया और फिर….अपनी जान गंवा दी...
उम्मीद की जा रही थी इस साल इंदौर में अच्छी बारिश होने से पानी की कमी नहीं होगी...लेकिन पानी कमी इस कदर हो गई कि बेचारी पूनम को पानी बचाने के एवज में अपनी जान गंवानी पड़ी...
एक और घटना, मध्य प्रदेश के ही जबलपुर में पानी विवाद को लेकर ही एक युवक पर जानलेवा हमला हुआ, जिसमें पीड़ित युवक की जान तो बच गई...लेकिन पानी की लड़ाई ने भरी जवानी में उसे अपाहिज बना दिया...बेचारा नितेश अपनी दोनों हथेलियां गंवा बैठा...
तो क्या कहें जंग शुरू हो गई या अभी कुछ वक्त का इंतजार है...
आलोक साहिल
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