लालू का तमाशा:धूमिल हुई बाढ़ पीडितों की आशा
आज बाढ़ ने बिहार को बुरी तरह झकझोर कर रखा हुआ है।16 जिलों के 20 लाख से अधिक लोग सीधे तौर पर बाढ़ की चपेट में हैं,20 हजार से अधिक लोग लापता है,ढाई लाख एकड़ से अधिक की कृषि भूमि खाक हो चुकी है,राहत कैम्पों की हालत खस्ता है,लोग पत्ते खाकर जहरीले जानवरों के बीच जिंदगी को सहेज पाने की जद्दोजहद कर रहे हैं,और इस बीच वहां पैदा हो रहे बच्चे और उनकी माएं मूलभूत जरूरतों से भी महरूम हैं।
ऐसे हालात में,सेना और नौसेना के जवान प्राणपण से लोगों को बचाने में लगे हुए हैं,सीआरपीऍफ़ के जवान एक दिन की तनख्वाह दे रहे हैं,सार्वजनिक क्षेत्र की 12 कम्पनियाँ 30 करोड़ दे रही हैं,पंजाब,हरियाणा से लगाए देश के कोने कोने से सहायत मिल रही है,यहाँ तक कि सरहद के पार से भी मदद के लिए हाँथ आगे आ रहे हैं।
ऐसे में बिहार के अपने खासमखास,अपने राजनीतिक गोलगप्पे में बाढ़ का चटपटा पानी भरकर बेचने में लगे हुए हैं।
कहते हैं,राजनीति जो न कराये कम है।
एक तरफ़ जहाँ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव,राहत कार्यों में देरी को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर दोषारोपण कर रहे हैं,वहीँ नीतीश कुमार,लालू पर बाढ़ की राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं.नेताओं के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं.पर,नैतिकता की पराकाष्ठा तो तब पार हो गई जब बाढ़-ग्रस्त बिहार के दौरे पर गए लालू यादव ने लग्जरी गाड़ी में बैठकर भूखे-नंगे बच्चों को 500 का नोट थमाकर लालू जिंदाबाद के नारे लगवाए।इसे क्या क्या कहा जा सकता है?
सच पूछिये तो,बाढ़ पीडितो के दर्द को यूँ तमाशा का रूप देना लालू जैसे बड़े नेताओं के बस की ही बात है.पर सवाल असल यह है कि वहां की जनता आस लगाये तो किससे,जब उनके अपने ही उनके ग़मों का माखौल उड़ाने पर अमादा हैं?
आलोक सिंह "साहिल"
बुधवार, 3 सितंबर 2008
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6 टिप्पणियां:
यह तो बहुत ही क्षोभ्जनक घटना है,इसकी सार्वजनिक तौर पर निंदा की जानी चाहिए .
उफ्फ... निश्चित तौर पर निंदनीय.
जिनकी आत्मा ही मर चुकी हो उससे ज्यादा की उम्मीद नही की जा सकती.
बहुत निराशाजनक है ये सब.
हमारा देश ऐसे ही राजनेताओं से भरा पड़ा है।तभी तो कहते हैं_"मेरा भारत महान।";)
खेदजनक !
अच्छा लिखा है। सस्नेह
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