शनिवार, 3 अप्रैल 2010

गरीबों के पेट पर लात न मारो...


‘वडापाव’ एक नाम, ऐसा नाम जिसको सुनकर जहां अच्छे अच्छों के मुंह से लार निकलने लगता है...तो तमाम ऐसे भी हैं...जिन्हें अपने पेट भरने का ख्याल आने लगता है...
बाकी दुनिया भले ही इस शब्द से वाकिफ न हो (हालांकि ऐसा संभव नहीं क्योंकि हिंदी फिल्मों का प्रिय व्यंजन रहा है वड़ापाव) या थोड़ा कम वाकिफ हो...लेकिन जो लोग मुंबई नगरी से ताल्लुक रखते हैं...उनके लिए तो पेट भरने का सबसे सरल, सुलभ और सस्ता विकल्प है ‘वडापाव’...सस्ता से मतलब यह कि दिल्ली जैसे शहर में एक कप चाय के लिए जितना खर्च करना पड़ता है उतना ही वड़ापाव के लिए मुंबई में खर्च करना पड़ता रहा है...लेकिन अब शायद मुंबई का वड़ापाव दिल्ली की चाय पर भारी पड़ जाएगी...
कोई आश्चर्य वाली बात नहीं...बेतहाशा बढ़ी मंहगाई के दौर में भी गरीबों का सतत पोषक बना रहा वड़ापाव...अब कुछ और गरीबों का हवाला देकर महंगा होने जा रहा है...जी हां, दरअसल, महाराष्ट्र के कामगार कल्याण मंत्री के अनुसार बेकरी में काम करने वाले मजदूरों की मासिक आय न्यूनतम 4561 रुपए होनी चाहिए...जो कि मुंबई के बिरले बेकरियों में ही होता है (बात सिर्फ सामान्य बेकरियों की हो रही है)…तो अभी तक मजदूरों को 100 से 125 तक रोजाना देकर काम कराने वाले बेकरी मालिकों के लिए आफत यह है कि मजदूरों का वेतन बढ़ाएं कैसे...बकौल बेकरी मालिक (मुंबई बेकर्स एसोसिएशन से संबद्ध पदाधिकारी)...इस धंधे में मुनाफा भी इतना नहीं कि पाव का दाम बढ़ाए बगैर मजदूरों का वेतन बढ़ा दें...तो अभी तक समान्य रूप से 5 से 15 रुपए में मिलने वाला वड़ापाव अब 7 से 20 रुपए तक में मिलने लगेगा...यानी एक गरीब का पेट भरने के लिए दूसरे गरीब के पेट पर जोरदार लात...
हालांकि, बेकरी मालिकों की बात भी बहुत बेजां नहीं है...ऐसे वक्त में जब तेल से लेकर नमक...और चीनी से लेकर गाडी का किराया सब महंगा हो गया, तो भला वड़ापाव क्यों नहीं महंगा हो सकता...उनकी बात अपनी जगह सही है. उधर मंत्री महोदय की चिंता भी जायज है, बल्कि अनुकरणीय है कि गरीबों का वेतन बढ़ना चाहिए...लेकिन इन सबके बीच इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वड़ापाव सिर्फ एक खाने का सामान या मुंबई की विशेष पहचान भर नहीं...यह लाखों (कोरोड़ों) लोगों के पेट भरने का साधन भी है...तो लोगों के पेट से कहीं कोई गंदा मजाक न हो जाए...
कदम सरकार उठाए या बेकरी मालिक, या फिर कोई तीसरा (ठाकरे फैक्टर)...लेकिन सच यही है कि अगर वड़ापाव भी महंगा हो गया तो...मुंबई से जुड़ी कई कहावतों को फिर से गढञना होगा....जो कि शायद अधिक मुश्किल होगा...बनिस्बत इसके के सरकार इस दिशा में किसी विशेष उपाय की तरफ ध्यान दे...

आलोक साहिल

6 टिप्‍पणियां:

Randhir Singh Suman ने कहा…

nice

Urmi ने कहा…

आपकी टिपण्णी के लिए बहुत बहुत शुक्रिया! मैं अपनी गलती मानती हूँ की जेंडर में ज़रा गलती हो गयी! आपसे गुज़ारिश है कि अब आप एक बार फिर मेरी कविता पढ़िए और टिपण्णी दीजिये! मैंने संशोधन कर लिया है! अपना सुझाव देते रहिएगा!
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

चन्दन कुमार ने कहा…

वडापाव की कहानी कुछ इस तरह सुनने को मिलेगी..अंदाजा नहीं था..दरअसल अब सरकारे आम आदमी को तहजीब बताने सिखाने का ठेका तो ले रही हैं, पर पेट भरने की जब बात आती है तो पीछे वाली गली से निकल जाती है....दोषी हम भी कि हमें भी हमारा मजहब प्यारा बजाय रोटी के

हर्षिता ने कहा…

वास्तविक चित्रण किया है आपने।

हर्षिता ने कहा…

वास्तविक चित्रण किया है आपने।

Husain Mohammad ने कहा…

दोषी हम भी कि हमें भी हमारा मजहब प्यारा बजाय रोटी के....