बुधवार, 31 दिसंबर 2008

ब्लॉगर साथियों माफ़ करना....

विलम्ब के लिए माफ़ी,क्योंकि तमाम ब्लॉगर साथियों ने जिस मुद्दे पर कोहराम मचा रखा है उसमें मैं पिछड़ गया.मैंने कल ढेरों ब्लॉग पढ़े और लगभग सभी में एक सी ही बातें और प्रतिक्रियाएं थीं.वो क्या थीं बताना अब जरुरी नहीं रह गया.सोंचा मैं भी इस जमात का हिस्सा बन जाऊं. कुछ लोगों ने इसे दुर्भाग्य करार दिया.उनका कहना था कि वैसे तो वे दिल्ली में नहीं थे या किन्ही कारणों से नहीं थे और अगर मौके पर मौजूद होते तो भी वे हिन्दयुग्म के उस वार्षिकोत्सव में नहीं जाते जहाँ,कलम के स्वामी माननीय राजेन्द्र यादव जी मुख्य अतिथि के रूप में पधारे थे और अपने आशीर्वचनों से सभी हिन्दी प्रेमियों को अभिभूत कर दिया.औरों का तो मैं नहीं जानता पर मेरे लिए यह परम सौभाग्य की बात थी कि मैं उस सफल आयोजन का हिस्सा था. बहुत बवाल मचा कि राजेंद्र जी ने ये कहा,वो कहा,वगैरह वगैरह..असल बात यह है कि ये सारा बवाल उनलोगों ने खड़ा किया जो ख़ुद मौके पर मौजूद नहीं थे और सुनी सुनाई बातों पर ही कान देते रह गए.अब इतनी बात हो ही गई तो ये उल्लेख कर ही देते हैं कि उन्होंने कहा क्या...वैसे तो उन्होंने काफ़ी कुछ कहा पर उसमें ढेर सारा हिन्दयुग्म के बारे में था,अब बात करते हैं उन बातों का जिन पर उत्पात मचा हुआ है,उन्होंने कहा-
-हमें १६वीं सदी के पहले के साहित्य को बक्सों में बंद कर देना चाहिए क्योंकि उनसे आज की पीढी,यूँ कहें हिन्दी को कोई लाभ नहीं.उन्होंने ये नहीं कहा कि आप बिल्कुल उन्हें मत पढ़ें,ये आप की मर्जी.अपने बृज,अवधी और ऐसी तमाम भाषाओँ सम्बन्धी लिप्सा को जमकर बुझाईये पर इस चक्कर में इस पीढी या खासकर आनेवाली पीढी को तो कम से कम मत ही तंग करिए जिसके लिए पैदा होते ही लक्ष्य थमा दिया जाता है कि तुम्हे अंग्रेजी आनी चाहिए,उससे निपटे तो फ्रेंच,जर्मन और ऐसी तमाम भाषाओँ को भी जानना है,इसी बीच हिन्दी तो सीखनी ही है.फ़िर क्योंकर बोझ लादना? वैसे भी एक तरफ़ तो हम आधुनिकता का दम भरते हैं दूसरी तरफ़ रुढियों में जीने का शौक भी पाल रखे हैं.मुश्किल है जी.दोगलापन केवल हमारे नेतागणों को ही शोभा देता है.- दूसरी बात ,वे मंच पर बैठे हुए,अपनी पाईप से धुंए उडा रहे थे,अपना-अपना तकाजा है इस बात पर,हो सकता है कि आप ख़ुद ही खुन्दस खाए हों,अरे भाई कभी सुट्टा के चक्कर में पाकेट ढीली हुई हो,तो इसके लिए आप दुसरे को क्यों नोचने पर अमादा हैं.मैं ये नहीं कहता कि नियम तोड़कर सार्वजनिक जगह पर धुम्रपान अच्छी बात है,पर इसके लिए आप कान तो मत ही खाईये .इसके लिए हमारे स्वस्थ्य मंत्री ही काफ़ी नहीं क्या?
- तीसरी बात उन्होंने कही कि अगर हिन्दयुग्म के लोग सिखाने को तैयार हों तो इस उम्र में भी मैं ब्लॉगर बनना पसंद करूँगा ,क्योंकि दोजख की जबान भी तो यही होगी,अब इसमें क्या ग़लत है भाई?आप ख़ुद दिनभर नेट पर बैठकर टिपटिपीयाते रहते हैं पर जब एक उम्रदराज आदमी वही चीज सीखना चाहता है तो आपत्ति क्यों? समझ से परे है,ये सबकुछ अजी ,अब इतने retrogessive होकर रहेंगे तो तकलीफ होगी,वक्त के साथ,पजामा छोड़कर सूट और खडाऊं छोड़कर स्टायलिश जुटे पहनना तो मंजूर कर लिया पर भाषा की बात आते ही रुढियों की दुहाई... माफ़ी चाहूँगा,एक बात और मैंने पढ़ी थी उसका उल्लेख करना भूल गया.कुछ साथियों ने ये लिखा था की वे ट्राल हैं,अजी ,क्या कम से कम भारत में राजेन्द्र यादव को इसकी जरुरत है ?उल्टा चोर कोतवाल को दांते,ख़ुद राजेन्द्र यादव के साथ जुड़कर थोडी शोहरत बटोर पाने की जुगत में जाने कब आप ख़ुद ट्राल हो गए और दोष देते हैं॥यादव जी को,ये तो बेनियाजी है गुरु...कुछ बुरी लग सकने वाली बातों और शब्दों के लिए सभी ब्लॉगर साथियों से फ़िर माफ़ी...
आलोक सिंह "साहिल"

गुरुवार, 11 दिसंबर 2008

मानवाधिकार: अब तो अंगुली करने से बाज आ जाओ...

किसी का कद बड़ा कहना,किसी के कद को कम कहना,

आता नहीं हमें गैर मोहतरम को मोहतरम कहना,

चलो चलें सरहद पर देश के लिए जान देने,

बहुत आसान है बंद कमरे में वंदे मातरम कहना!


इंसानी सभ्यता के शुरुआत के समय से ही अर्थात जब मानव ने जंगली जीवन छोड़कर सामाजिक जीवन में कदम रखा तब से ही प्राकृतिक रूप से उसने अपने अधिकारों और कर्तव्यों के दायरे बना लिए।धीरे धीरे सामाजिक जीवन का विस्तार हुआ,समाज ने एक व्यवस्थित आकार लेना शुरू किया तो, कुछ कायदे क़ानून भी बन गए,जिनके अनुसार कुछ काम करना अनिवार्य हो गए तो वहीँ कुछ काम वर्ज्य बन गए.इन सबके बीच हमें इंसानी(मानवीय) अधिकार भी मिले जो आगे चलकर मानवाधिकार बन गए.

वैसे तो हर देश अपने नागरिकों को तमाम सारे अधिकार देता है और लगभग हर जगह मानवाधिकार आयोग जैसी संस्थायें भी हैं.भारतीय संविधान में भी नागरिकों को तमाम सारे अधिकार दिए गए हैं,विश्व में शायद सबसे अधिक क्रियाशील मानवाधिकार आयोग भी है.पर ११ सितम्बर की घटना के बाद जब अमेरिकी सैनिकों द्वारा "अबू गारेब जेल" सहित अनेक जगहों पर कैदियों के साथ दरिन्दगी भरे बर्ताव की बातें सामने आयीं,इज़राइल.पलाऊ और मार्शल आईलैंड जैसे देशों में बंदियों के साथ अमानवीय व्यवहार की बातें उभरकर आयीं तो वैश्विक स्तर पर ऐसे किसी संगठन की जरुरत महसूस हुई जो इन सब बातों की देख रेख करे कि कोई भी देश अपने बंदियों या अपने नागरिकों के साथ ऐसा व्यवहार न करे.इस तरह 19 जून 2006 को जेनेवा में युनाईटेड नेशन आफ ह्यूमन राईट्स काउन्सिल का गठन किया गया जिसमें भारत सहित ५३ देश शामिल हैं.हालाँकि इसे अपने गठन के समय से ही अमेरिका,इज़राइल,पलाऊ और मार्शल आईलैंड जैसे देशों का विरोध झेलना पड़ा. खैर,ये तो रही मानवाधिकार आयोग के गठन और इतिहास की बातें,अब आतें हैं भारतीय परिदृश्य में मानवाधिकार आयोग की जमीनी हकीकत पर.भारत में यों तो नागरिकों को संविधान के माध्यम से ढेरों अधिकार और कर्त्यव्य दिए गए हैं इनके संरक्षण के महत्व को देखते हुए अलग से एक स्वच्छंद मानवाधिकार आयोग का गठन भी किया गया,तमाम बड़े अधिकारों से लब्ध यह आयोग जब चाहे जिसे अपने "स्केल" पर नाप सकता है और नपने वाला छींक तक नहीं ले सकता क्योंकि जबतक वो छींकने की जुर्रत करे तबतक उसे निमोनिया हो चुका होगा.हालाँकि ये जरुरी नही कि हर बार ऐसा ही हो पर कमबख्त आंकडों पर किसका जोर है.दुर्भाग्य से इनकी सबसे अधिक गाज गिरती है उन पुलिसकर्मियों पर जो पूरे समाज पर अपनी गाज गिराते फिरते हैं.
एक आतंकी जब ढेरों लोगो को हताहत करने के बाद पुलिस की गोलियों का शिकार होता है तो गहरी नीद में सोया मानवाधिकार आयोग जाग उठता है,जब एक वहशी दरिंदा एक नाबालिग़ के साथ दुष्कर्म करने के बाद बड़ी बेरहमी से उसे मौत के घाट उतार देता है तो सबकुछ शांत रहता है पर जब पुलिस उसी दरिन्दे पर लाठियां चलने लगती है तो आयोग जाग उठता है,निठारी में अनेक बच्चे(जिनकी सही गिनती भी नहीं) एक हैवान की हैवानियत का शिकार हो गए,आयोग ऊँघता रहा पर जब वो हैवान पुलिसिया शिकंजे में आ फंसा तो आयोग जाग उठा,अभी हाल ही में मुम्बई को आतंकियों ने दहला दिया,तब शायद ही कोई महामानव रहा हो जिसका कलेजा न फटा हो पर ये धमाके भी आयोग की कुम्भकर्णी नीद तोड़ने में असफल रहा,पर पकड़े गए एक आतंकी कसाब ने पुलिस पर थर्ड डिग्री का आरोप क्या लगाया झट आयोग जाग उठा,कमाल है जनाब,.......ये कैसी नीद है आपकी? दुनिया के सारे धर्म सम्प्रदाय कहते हैं जो किसी मानव की हत्या करता है वो मानव नहीं रह जाता,या फ़िर आतंकियों का कोई जात धर्म नही होता,वे इंसान ही नहीं होते,क्योंकि कोई भी इंसान किसी की हत्या करने के पहले हज़ार दफे सोचेगा,पर क्या आतंकी ऐसा सोचते हैं कभी.....नहीं,तो...वे कैसे मानव?पर,असल मानव तो वही हैं क्योंकि हमारा आयोग हरदम उन्ही की हिमायत में लगा रहता है.एक हाल की घटना का जिक्र करना लाजिमी होगा,बीते दिनों दिल्ली के बाटला हाउस इलाके में कुछ तथाकथित आतंकी(तथाकथित इसलिए कि हमारे पूज्य,अमर सिंह,कपिल सिब्बल,अर्जुन सिंह जैसे लोग उन्हें आतंकी मानने से इनकार करते हैं ) पुलिस इनकाउन्टर में मारे गए,इस मुठभेड़ में पुलिस के जाबाज अधिकारी एम.सी.शर्मा शहीद हो गए,कुछ अन्य जवान भी घायल हो गए,कमाल तो देखिये जनाब,जो शहीद हुए उनका कोई नही पर जो दुर्दांत मारे गए उनके लिए आयोग वाले गला फाड़ने लगे(यहाँ हम नेताओं की बात नहीं कर रहे हैं,कम से कम इंसानी बिरादरी से तो उन्हें दूर ही रखिये). हालाँकि यह कहना एकतरफा बात होगी कि मानवाधिकार आयोग ने सिर्फ़ बेगुनाहों को ही सजा दिलाई है,कभी कभी उन्होंने गुनाहगारों को भी सजा दिलाई है,ये अलग बात है कि ऐसे आंकड़े ही दुर्लभ होते हैं. ऐसे में यह सवाल बड़ा ही लाजिमी हो जाता है कि क्या मानवाधिकार सिर्फ़ आतंकियों या अपराधियों के ही होते हैं,वीर जवानों,ईमानदार पुलिसकर्मियों या निर्दोष जनता के नहीं ?ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ भारत में ही आतंकियों और अपराधियों के मानवाधिकार की बातें होती हैं,पश्चिमी देशों में भी ऐसी बातें होती हैं.पर वहां दोगलापन नहीं होता,हमारी तरह वहां के मानवाधिकार वाले पुलिस की राह में रोड़े नहीं होते बल्कि उनके सहायक होते हैं,शायद यह भी एक वजह है कि अमेरिका में ११ सितम्बर के बाद आतंकवाद के नाम पर पटाखे तक नहीं फूटे,पर भारत में........खुदा,खैर करे.और दिनों की तो बात नहीं कर सकता पर औपचारिक रूप से घोषित मानवाधिकार दिवस पर यह उम्मीद करते हैं कि शायद अपना आयोग आम जनता और पुलिस के मानवाधिकारों को लेकर भी सचेत रहेगी और बिना वजह अंगुली करने से बाज आएगी.
आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी ऐय्याशियाँ....

बीते दिनों देश ने बड़े वीभत्स दृश्य देखे,ह्रदय को चीर देने वाली चीखें और गुहार सुनीं,जो एक असामान्य बात थी (जो कि अब सामान्य बात हो चुकी है) और उसके बाद एक बेहद सामान्य प्रक्रिया हुई (जो कि इस सरकार में अब तक असामान्य थी),इस्तीफों का दौर शुरू हुआ,बड़े-बड़े नपे या नापे गए।पर समस्या यह है कि जिन तथाकथित नैतिक जिम्मेदारियों का हवाला देते हुए इस्तीफे दिए गए उनको कितना नैतिक माना जाए?

क्या देश,पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल को इतना काबिल मानता है कि उनके इस्तीफे को सम्मान की निगाह से देखे और उनकी कर्तव्य-परायणता की गाथा गढे?....शायद नहीं,बिल्कुल नहीं....बल्कि यह हास्यास्पद ही है कि एक ऐसा व्यक्ति नैतिक इस्तीफा देता है जिसे नैतिक जिम्मेदारियों का ककहरा तक नहीं पता,उसे पता है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी ऐय्याशियाँ.... नैतिक इस्तीफा देना एक बड़ी घटना होती है जिसका मतलब होता है कि आपने प्राणपण से कोशिश की पर कीन्ही कारणों से आप असफल रहे या फ़िर किसी घटना ने आपको नैतिक रूप से झकझोर दिया हो।पर इनमें से कोई भी शर्त शिवराज पाटिल पर लागू नहीं होती,ये बात कोई भी भारतीय दावे से कह सकता है.बल्कि उन्होंने तो उस बेहद सम्मानीय और स्वस्थ परम्परा की धज्जियाँ उडायीं जिसकी शुरुआत "लाल बहादुर शास्त्री" (रेल मंत्री के रूप में) जैसे महान लोगों ने की थी.ऐसे में इन इस्तीफों का क्या करें? बात असल अभी भी ज्यों की त्यों है,अभी भी पकिस्तान आतंकियों को बेरोक टोक पैदा करता जा रहा है,सुरक्षा तंत्र की स्थति किसी से छिपी नही है(जवानो की वीरता पर किसी को शक नही,पर तंत्र...),ऐसे में आज जो मुम्बई में हुआ कल कहीं और होगा,इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.तो क्या हम हाँथ पर हाँथ धरे बैठे रहे और इन्तजार करें अगली ऐसी ही किसी घटना का?क्या किसी बड़ी घटना की प्रतिक्रिया में कुछ नामुराद इस्तीफे ही काफ़ी हैं?

इसका जवाब राजनेताओं को ढूँढना था,जो की हो चुका.

अब वक्त है यह सोचने का कि इन राजनेताओं का क्या करें,और यह काम जनता को करना है...

आलोक सिंह "साहिल"

शनिवार, 29 नवंबर 2008

कहाँ है राज ठाकरे और उसकी बहादुर सेना...

कल रात १२ बजे करीब मेरा मोबाईल एकाएक घनघना उठा,मैं कुछ काम कर रहा था,खैर,देखा एक मैसेज आया था.भेजने वाला एक ऐसा लड़का था जो मेरे छोटे भाई की तरह है.मैं उसे एक बच्चे की तरह ही मानता और समझता रहा हूँ,जो शरीर से तो बड़ा है पर उसकी सोच बच्चों वाली है.मैंने मैसेज पढ़ा,चौंक गया.अरे,ये क्या मैसेज भेजा है इसने?इतना बड़ा हो गया है अंशु?....... मैसेज था- "where is raj thackaray n his 'brave' sena?tel him dat 200 NSG commondos 4m Delhi(no marathi manoos! all south &north indians) hv been sent 2 mumbai to fite t terrorists so dat he can sleep peacefully..pls fwd ths so tht it finally reaches t coward bully!tel him nt 2 destroy my country's sovergnity...." (कहाँ है राज ठाकरे और उसकी 'बहादुर'सेना ? उनसे कह दीजिये कि दिल्ली से २०० एनएसजी कमांडो आतंकियों से लड़ने मुम्बई भेजे गए हैं ताकि वह चैन की नींद सो सके... कृपया इस संदेश को फारवर्ड करें ताकि यह अंततः उस (राज ठाकरे)नपुंसक! के पास पहुँच जाए.उनसे कह दीजिये कि मेरे देश की संप्रभुता और अखंडता को नष्ट न करे....) मैं हतप्रभ था मैसेज पढ़कर,नहीं की किसी ने बहुत बड़ी बात की थी,पर की,इस घटना को एक बच्चा भी इस रूप में देख सकता है. महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों पर हमले और मुम्बई में हुई आतंकी घटना,दोनों दो बिल्कुल अलग बातें हैं.किसी भी रूप में दोनों की तुलना नहीं की जा सकती (शिवाय इसके की दोनों ही घटनाएं सरकार और प्रशासन नामक संस्था को आइना दिखाती हैं),पर आम जनता कैसे इन दोनों घटनाओं में सम्बन्ध स्थापित कर नई बातें और नई सीख पैदा कर लेती है,विस्मयकारी है. दुखद है तथाकथित हमारे नेता आम जनता की श्रेणी में नहीं आते,वरना शायद इस संदेश की जरुरत ही नहीं पड़ती.
आलोक सिंह "साहिल"

कहाँ है राज ठाकरे और उसकी बहादुर सेना...

कल रात १२ बजे करीब मेरा मोबाईल एकाएक घनघना उठा,मैं कुछ काम कर रहा था,खैर,देखा एक मैसेज आया था.भेजने वाला एक ऐसा लड़का था जो मेरे छोटे भाई की तरह है.मैं उसे एक बच्चे की तरह ही मानता और समझता रहा हूँ,जो शरीर से तो बड़ा है पर उसकी सोच बच्चों वाली है.मैंने मैसेज पढ़ा,चौंक गया.अरे,ये क्या मैसेज भेजा है इसने?इतना बड़ा हो गया है अंशु?....... मैसेज था- "where is raj thackaray n his 'brave' sena?tel him dat 200 NSG commondos 4m Delhi(no marathi manoos! all south &north indians) hv been sent 2 mumbai to fite t terrorists so dat he can sleep peacefully..pls fwd ths so tht it finally reaches t coward bully!tel him nt 2 destroy my country's sovergnity...." (कहाँ है राज ठाकरे और उसकी 'बहादुर'सेना ? उनसे कह दीजिये कि दिल्ली से २०० एनएसजी कमांडो आतंकियों से लड़ने मुम्बई भेजे गए हैं ताकि वह चैन की नींद सो सके... कृपया इस संदेश को फारवर्ड करें ताकि यह अंततः उस (राज ठाकरे)नपुंसक! के पास पहुँच जाए.उनसे कह दीजिये कि मेरे देश की संप्रभुता और अखंडता को नष्ट न करे....) मैं हतप्रभ था मैसेज पढ़कर,नहीं की किसी ने बहुत बड़ी बात की थी,पर की,इस घटना को एक बच्चा भी इस रूप में देख सकता है. महाराष्ट्र में उत्तर भारतियों पर हमले और मुम्बई में हुई आतंकी घटना,दोनों दो बिल्कुल अलग बातें हैं.किसी भी रूप में दोनों की तुलना नहीं की जा सकती (शिवाय इसके की दोनों ही घटनाएं सरकार और प्रशासन नामक संस्था को आइना दिखाती हैं),पर आम जनता कैसे इन दोनों घटनाओं में सम्बन्ध स्थापित कर नई बातें और नई सीख पैदा कर लेती है,विस्मयकारी है. दुखद है तथाकथित हमारे नेता आम जनता की श्रेणी में नहीं आते,वरना शायद इस संदेश की जरुरत ही नहीं पड़ती.
आलोक सिंह "साहिल"

बुधवार, 19 नवंबर 2008

राजनीतिक नपुंसकता......चार चाँद लगाती रहेगी..?

डान फ़िल्म देखी है आपने?अरे वही जिसमें छोरा गंगा किनारे वाला बनारसी पान चबाते हुए बम्बई पहुँचता है और उसके कसीदे पढ़ते हुए गाता है 'ई है बम्बई नगरिया तू देख बबुआ'.जी हाँ,तब मुम्बई,बम्बई हुआ करती थी,उन्ही दिनों इडली,साम्भर,डोसा की बदबू से परेशान बम्बई का एक भूमिपुत्र हांथों में "छड़ी" लेकर पैदा हुआ और तमाम लुन्गीवालों को दक्षिण का रास्ता दिखा ताकि उसे वहां की राजनीति में एक रास्ता मिल जाए,मिला भी और वह छड़ी के बल पर ही किंगमेकर बन बैठा.तब बम्बई विकास के पहियों पर बहुत तेजी से दौड़ रही थी,बहुत विकास हुआ,इतना कि बम्बई,वर्णक्रम में दो कदम आगे बढ़कर 'ब' से 'म' पर आ गई और मुम्बई हो गई. अब वो "छड़ी" पुरानी हो गई थी,बिल्कुल घिसी हुई और कमजोर.तब उसे दरकार थी एक और नई छड़ी की पर उसे सँभालने के लिए नए,मजबूत हाँथ भी चाहिए थे.तब पुत्रमोह और बंटवारों के बीच वो "छड़ी" उसी भूमिपुत्र के भतीजे ने उठा ली,फर्क और भी आया,तब रुख दक्षिण का था अब उत्तर का. अब कहानी से आगे बढ़कर आज के मुद्दे पर आते हैं.आज राज ठाकरे(वही भतीजा) जैसा २००(सक्रिय) कार्यकर्ताओं की पार्टी चलाने वाला बन्दा मुम्बई से उत्तर भारतीयों को खदेड़ने पर अमादा है.कारण इसबार भी वही राजनीतिक हैसियत बना पाने की जद्दोजहद.इसके चलते देशभर में क्षेत्रीयता की आग लपटें लेने लगी,भाषा और क्षेत्र आधारित राजनीति सर उठाने लगी है. क्षेत्रीयता का जो राजनीतिक सबक मुम्बई से चल पड़ा है वह सरेआम उस लोकतंत्र की ऐसी तैसी कर रहा है,जिसके बूते आजादी के वक्त सरदार पटेल ने क्षेत्रीयता और बिखराव के तमाम रुझानों को नाकाम किया था. जब सरदार पटेल ने साढे पाँच सौ सूबों में बँटे हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरोने का काम शुरू किया तो तीन रियासतों से विरोध हुआ जिनमें एक जूनागढ़ भी था जो उन्ही के गृह प्रदेश गुजरात का हिस्सा था.जब वहां का निजाम साम दाम से नहीं माना तो उन्होंने सैनिक कार्रवाई से जूनागढ़ को गुजरात का अभिन्न हिस्सा बना दिया. अगर इस किस्से/घटना को ध्यान रखें तो यह सोचना बिल्कुल ग़लत है कि अगर केन्द्र सरकार चाहे तो भी इस क्षेत्रीयता की लपटों को शांत नहीं कर सकती.विडम्बना है कि आज देश का गृह मंत्री उसी महाराष्ट्र से आता है जहाँ क्षेत्रीयता की राजनीति चरम पर है.उस राज्य में सरकार भी उसी पार्टी की है जो केन्द्र में बैठी है,पर फ़िर भी कोई कुछ कहने को तैयार नहीं........अधिक दुखद/हास्यास्पद यह है कि आज जबकि सारा विश्व आर्थिक मंदी से जूझ रहा है वहीँ हमारा देश भाषा और क्षेत्रीयता की क्षुद्र राजनीति में व्यस्त है जिसे तक़रीबन दो दशक पहले दबा दिया गया था.सवाल यह कि,आख़िर कब तक इच्छाशक्ति की कमी से उपजी राजनीतिक नपुंसकता राजनेताओं की हैसियत में चार चाँद लगाती रहेगी,जाने कब तक?
आलोक सिंह "साहिल"

सोमवार, 3 नवंबर 2008

नसीरुद्दीन शाह, तालियाँ,कैमरों के फ्लैश और लोगों का हुजूम

जामिया मिल्लिया इस्लामिया का अंसारी ऑडिटोरियम दर्शकों से खचाखच भरा था,तमाम छोटे बड़े लोग आपनी-अपनी सीटों पर काबिज थे,कुछ, जिनको सीटें मयस्सर नहीं हो सकीं तो सीटों के नीचे कालीन पर ही बैठ लिए,बाकी कुछ जगह जहाँ कहीं बची थी उसे कैमरा वालों और खबरचियों ने भर रखा था.एक कौतूहल सा भर गया था पूरे वातावरण में.इसी बीच मंच पर हलकी सी कुछ सरसराहट हुई,क्षणेक के लिए व्याप्त सन्नाटे के बाद एकाएक पूरा ऑडिटोरियम शोर,तालियों और कैमरे के फ्लैश से भर उठा.मंच पर एक बेहद परिचित और संजीदा सा लगने वाला आदमकद आ चुका था,जिसके दोनों हाँथ बार बार लबों पर जाकर दर्शकों की तरफ़ फ्लाईंग किस उछालने में व्यस्त थे.तबतक पीछे बैठे किसी ने जोर से गला फाडा,"नसीर भाई,सलाम वालेकुम",शायद आवाज उनतक पहुँच नहीं सकी होगी,क्योंकि वे जवाब देने की बजाय मंच पर रखे सोफे पर पसर चुके थे. मंच पर पहले से मौजूद एक प्रस्तोता ने मिसेज किदवई को आवाज लगायी कि वे आयें और 'नसीरुद्दीन शाह' साहब का परिचय कराएं जिनके परिचय की जरुरत इस तीसरी दुनिया में तो कम से कम नहीं ही है.खैर,कुछ एक बेहद भारतीय सरीखे औपचारिकताओं के बाद नसीर साहब कमर कस चुके थे,क्योंकि आज उन्हें वहां दर्शकों से सीधे मुखातिब होकर उनकी तमाम जिज्ञासाओं को शांत करना था.इस मौके पर उन्होंने निजी जिंदगी से लगाये फिल्मों,थियेटर और सामाजिक मुद्दों पर खुलकर जवाब दिए.उन्होंने कहा कि मैं मूलतः थियेटर का इन्सान नहीं हूँ पर मेरी पहली पसंद वही है क्योंकि इसमें सीधे दर्शकों से संवाद करने का मौका मिलता है(हालाँकि ऐसे,मुझे लोगों को फेस करने में असुविधा होती है).एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहाकि आजकल के नए निर्देशकों में काफ़ी क्षमता है और वे सामाजिक सरोकारों वाली फिल्में भी बना रहे हैं.बेशक,७० के दशक में भी सामाजिक सरोकारों वाली फिल्में बनीं लेकिन वे मास्टर पीस कत्तई नहीं थी.चूँकि उस समय के निर्माताओं में आलोचना सहने की क्षमता नहीं होती थी इसीलिए तथाकथित समांतर सिनेमा का अवसान हो गया.जबकि आजकल के निर्माताओं में प्रयोग करने का साहस और आलोचना सहने की क्षमता भी है.यही वजह है कि आज भारतीय सिनेमा फ़कत नाच गाने वाला एक ड्रामा नहीं रहा गया है बल्कि बाहर वाले भी इसे गंभीरता से लेने लगे हैं. जब एक छात्र ने फंडामेंटलिज्म की बात छेड़ी तो उनका कहना था फंडामेंटलिज्म वे लोग हैं जिनके पास अपने ख़ुद के विचार नहीं हैं.साथ ही उन्होंने इस बात पर भी बल दिया कि आज जरुरत इस बात की है कि इस्लाम को जानने के लिए कुरान को न सिर्फ़ पढ़ा जाए बल्कि सही तरीके से समझा जाए और इसके ग़लत इंटरप्रीटेसन से भी बचा जाए. जैसे जैसे नसीर साहब सवालों का जवाब देते गए लोगों में सवाल पूछने के लिए होड़ मचने लगी.ऑडिटोरियम में बैठे सभी के पास कुछ न कुछ पूछने के लिए था.पर वक्त की कमी ने इस सिलसिले को थमने पर मजबूर कर दिया.फ़िर आने का वादा कर नसीर साहब ने रुखसत ली और जाते जाते एक बार फ़िर दर्शकों की तरफ़ फ्लाईंग किस उछालकर उनके प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त किया.इस तरह जामिया मिल्लिया इस्लामिया और वहां उपस्थित लोगों के लिए वह दिन एक तारीख बन गया.
आलोक सिंह "साहिल"

शनिवार, 27 सितंबर 2008

जो कागज़ के फूल सजे हों....

14 सितम्बर हमारे देश में हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है.हरसाल की तरह इस साल भी हिन्दी दिवस आया और आकर चला गया.हरसाल की तरह इस बार भी हिन्दी का जन्म दिवस बड़ी धूम धाम से मना,मसलन,हिन्दी में काम को बढावा देने वाली खोखली घोषनाएँ,भिन्न भिन्न तरह के सम्मलेन,आयोजन वगैरह वगैरह.पर असल सवाल इसबार भी अनसुलझा रह गया कि क्या यह गुजरा साल हिन्दी के इतिहास में एक साल और जोड़ गया या उसकी उम्र से एक साल कम कर गया।
आज से लगभग ६ दशक पहले १४ सितम्बर को जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया तब राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त ने बड़े दिल से यह घोषणा की थी-
है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी भरी,
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपि है नागरी.
पर आज भी ये घोषणा साकार रूप लेने की बाट जोह रहा है.हमेशा से ही हिन्दी हमारे बोलचाल और संपर्क की भाषा रही है पर आज के समय में हिन्दी केवल उन लोगों की भाषा बनकर रह गई है जिन्हें या तो अंग्रेजी आती नहीं या फ़िर हिन्दी से कुछ ज्यादा ही लगाव है,ये वही लोग हैं जिन्हें पिछड़ा और सिरफिरा जैसे नाम दिए जाते हैं।
आज जब हमारा देश हर क्षेत्र में प्रगति कर रहा है,ऐसे में हमारी हिन्दी राजभाषा से राष्ट्रभाषा के सफर में कहाँ पिछड़ गई?क्या कुछ कमी रह गई इसके विकास में? आज दुनिया में जहाँ सभी विकसित और विकासशील देश अपनी भाषाओँ में काम करके दिनोंदिन प्रगति कर रहे हैं वहीँ हमारे देश में हिन्दी में काम करने से ही गुरेज किया जाता है,अधिकांश उच्च शिक्षण संस्थानों में शिक्षण का एकमात्र माध्यम अंग्रेजी ही है.ऐसे में ज्यादा कुछ अच्छा उम्मीद करना ही बेमानी है.आज हिन्दी मिडिया के प्रसार ने काफ़ी हद तक लोगों को हिन्दी तक पहुँचने में अहम् भूमिका निभाई है इसी तरह अगर प्रशासनिक स्तर के कार्य भी हिन्दी में होते तो शायद सरकारें,आमजनता के प्रति ज्यादा जवाबदेह होतीं.पर.......
एक बड़ी अजीब बात है कि हमारे देश के संविधान का प्रारूप ही अंग्रेजी में बना,संविधान सभा की बहस का अधिकांश हिस्सा भी अंग्रेजी में ही प्रकाशित हुआ,यहाँ तक कि हिन्दी के प्रबल पक्षधर भी अंग्रेजी में ही बरसे.शायद यही कारण है कि आजादी के ६१ सालों बाद भी भारत का विधितंत्र अंग्रेजी और उर्दू में ही चलता है.यहाँ तक कि देश के उच्चतम और उच्च न्यायालयों का सारा काम सारा अंग्रेजी में ही होता है ऐसे में आमजनता कानूनी दांवपेंचों से वाकिफ नहीं हो पाती और कानून के दलदल में फंसती जाती है।
अंग्रेजी के कारण हमारा बहुत नुकसान हुआ तो उम्मीद से कहीं ज्यादा लाभ भी मिला इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि देश में हिन्दी का पठन पाठन ही बंद कर दिया जाए,उससे नफरत किया जाए,बल्कि उसे उतना ही महत्व दिया जाए कि हमारी हिन्दी भी बची रहे.आज जब पश्चिम के देशों में भी हिन्दी का डंका बज रहा है,यहाँ तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को सातवीं भाषा के रूप में मान्यता देने की कवायद भी चल रही है,ऐसे में अपने ही देश में हिन्दी की उपेक्षा देखकर एक शेर याद आता है-
सच पूछो तो यूँ लगती है हिन्दी हिंदुस्तान में,
कागज के फूल सजे हों शीशे के गुलदान में.
आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

इस्लामी आतंकवाद....अधिक खतरनाक कौन?

आज जहाँ एक तरफ़ इस्लामी आतंकवाद ने देश को झकझोर कर रखा हुआ है वहीँ दूसरी तरफ़ एक अन्य तरह का आतंकवाद भी अपने लिए एक खास तरह की जमीन तैयार करने में लगा हुआ है।यह अलग बात है कि अभी तक इस नए तरह के आतंकवाद को आधिकारिक तौर पर आतंकवाद का टैग नहीं मिला है।
जिस तरह इस्लामी आतंकवाद ने देश में असुरक्षा और दहशत का माहौल पैदा कर रखा है,उसी तरह इस नए वाले ने भी देश में रहने वाले एक खास संप्रदाय/धर्म के लोगों को खौफजदा कर रखा है,पहला वाला भी एक धर्म की आड़ में चलाया जा रहा है,तो दूसरे के मूल में भी कहीं न कहीं धर्म ही है।थोड़ा फर्क है दोनों में तो यह कि पहला वाला अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा किया जा रहा है तो दूसरा बहुसंख्यकों द्वारा,पहले वाले में आतंक फैलाने वाला संप्रदाय ख़ुद ही सकते में है तो दूसरे वाले में आतंक के शिकार संप्रदाय के लोग।
अब अगर नियम कानून,समाजशास्त्र आदि की बात करें तो आतंकवाद के सन्दर्भ में यह बात बहुत अजीब नहीं लगती कि एक अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इसमें शामिल हों क्योंकि हो सकता है बहुसंख्यक नीत नीतियों ने किसी रूप में उनके साथ ज्यादती की हो या उनकी भावनाएं आहत हुई हों,ऐसा सम्भव है(जरुरी नहीं कि ऐसा ही होना चाहिए),शायद यही आतंकवाद को जन्म देने वाले कारक हैं,पर जब बहुसंख्यक समुदाय के लोग ऐसा करने लग जायें तो समझ नहीं आता कि क्या कारण हो सकता है,या कैसे इनसे बचा जाए?
अगर बात समझ नहीं आई तो पिछले कुछ समय से इसाई संप्रदाय के लोगो और उनके आस्था के केन्द्र चर्चों पर होने वाले लगता हमलों को जेहन में लाईये।अरे,दूर कहाँ जा रहे हैं,यहीं उडीसा,कर्नाटका वगैरह कहीं भी चले जाईये.
आखिरी सवाल- अब आखिरी सवाल यह है कि अधिक खतरनाक कौन,जिसे नाम दे दिया गया है वो या जो अभी भी बेनाम है?और क्या दूसरे वाले को भी एक नाम की दरकार है?
आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 19 सितंबर 2008

मुठभेड़ चल रही,दो मारे गए,एक गिरफ्तार

दिल्ली में हुए हालिया बम धमाके, दिल्ली पुलिस समेत केन्द्रीय सत्ता तक के लिए सरदर्द बने हुए थे,कपड़े बदलने और विभिन्न तरह की लापरवाही के चलते भी गृहमंत्री शिवराज पाटिल की खासी किरकिरी हो रही थी,इन सबसे परे उधर दिल्ली पुलिस अपने अब तक के सबसे बड़े सरदर्द से गुजर रही थी और अपने दामन पर और कोई भी छींटा नहीं आने देना चाहती थी यही कारण था कि घटना के तकरीबन दो दिन बाद जाकर संदिग्धों का स्केच जारी किया गया जो अमूमन घटना के तत्काल बाद कर दिया जाता है,और जारी किए गए स्केच की खास बात यह रही की वह स्केच न होकर होकर पूरा का पूरा फोटो ही था जो विभिन्न कलाकारों की मदद से बनवाया गया था।था,जो चीख चीख कर कह रहे थे कि इसबार दिल्ली पुलिस के इरादे क्या हैं,वे कोई भी रिश्क नहीं लेना चाहते थे,इसीलिए हरकाम बहुत सफाई के साथ किया ।
आखिरकार दिल्ली पुलिस की मेहनत रंग लायी और जोरदार/मुकम्मल मुखबिरी ने पहुँचा दिया दिल्ली पुलिस को आतंकियों की गिरेबान तक।कई दिनों से चल रही खोजबीन और निशानदेही के परिणाम स्वरुप जब पुलिस को पता चला कि आतंकी जामिया मिल्लिया इस्लामिया के बगल/पीछे जामिया नगर और बाटला हाउस इलाकों में छिपे हैं तो बेहद व्यस्थित तरीके से पूरी तयारी केसाथ आज सुबह ११ बजे पुलिस ने बाटला हाउस पर धावा बोला,दिल्ली पुलिस का साथ देने के लिए एन एस जी कि टीम भी पहुँच चुकी है। अभी तक इन धमाकों के तथाकथित मास्टर माईंड तौकीर का दाहिना हाँथ कहा जाने वाला अतीक तथा एक और आतंकी सैफ ढेर किए जा चुके हैं। जबकि जामिया नगर के खलीला मस्जिद के पास स्थित मकान नम्बर एल-१८ में छिपे आतंकियों से पुलिस की मुठभेड़ जारी है,एक अन्य सफलता के तौर पर एक आतंकी की गिरफ्तारी भी हो गई है।उम्मीद कि जा सकती है पूर्व कि घटनाओं से सबक लेते हुए दिल्ली पुलिस ने जो मेहनत कि है वो अंजाम तक जायेगी.

आलोक सिंह "साहिल"

शनिवार, 13 सितंबर 2008

धमाकों ने फ़िर किया बेहाल

धमाकों ने फ़िर दहलाया दिल्ली को।दिल्ली के ३ पाश जगहों पर हुए एक के बाद एक ५ धमाके।ढेरों घायल। एकबार फ़िर आतंकवादियों ने अपने नापाक मंसूबों को अंजाम दे दिया और दहल उठा हमारा देश।
आज शनिवार का दिन है,वीकेन्ड का पहला दिन।हफ्ते भर के काम काम के बोझ से थके लोगों के लिए राहत की साँस लेने का दिन।हफ्ते भर की भागमभाग से उबरकर मस्ती करने का दिन।वो दिन जब लोग अपने घरों से बाहर निकलकर सपरिवार घूमने-फिरने और मार्केटिंग करने का प्लान बनाते हैं,पर शायद इस देश के दुश्मनों को हमारा सुकून रास नहीं आता।अभी पिछले दिनों पूरे देश के विभिन्न जगहों पर हुए धमाकों के चोट से लोग उबर भी नहीं पाए थे कि इन नामुरादों कर डाला एकबार फ़िर धमाका और इस बार निशाने पर थे राजधानी दिल्ली के वो खास जगह जहाँ छुट्टी के दिनों में खासी भीड़ रहती है।
ये जगह हैं
१।करोल बाग का गफ्फार मार्केट
२।ग्रेटर कैलाश-१ का एम् ब्लाक
३।कनाट प्लेस के पास बारहखम्बा रोड और सेन्ट्रल पार्क।
अभी तक पुष्ट तौर पर किसी के हताहत होने की सूचना तो नही मिली है लेकिन कम से कम १० से अधिक लोगों के मारे जाने की आशंका है.पहला धमाका करोल बाग़ के गफ्फार मार्केट में हुआ जहाँ एक ऑटो के सीएनजी सिलिंडर फटने से धमाका हुआ.आशंका जताई जा रही थी कि शायद सिलिंडर फटने से मामूली विस्फोट हुआ हो,तभी ग्रेटर कैलाश-१ में धमाका हो गया,लोग कुछ समझ पाते तबतक अगला धमाका बारहखम्बा रोड पर गोपाल दास बिल्डिंग के पास हो चुका था.पुलिस मौके पर पहुँची घायलों को अस्पतालों तक ले जाने की कवायद में लगी ही हुई थी कि कनाट प्लेस के सेन्ट्रल पार्क और ग्रेटर कैलाश में धमाके हो गए।
ध्यान रहे कि कनाट प्लेस पर जहाँ धमाका हुआ वह मेट्रो स्टेसन के बिल्कुल करीब की जगह है,इससे यह साफ़ हो जाता है कि धामको का मकसद कितना भयानक था अभी पूरा पुलिस विभाग घायलों को अस्पतालों तक पहुँचने में लगा है.दुआ की जा सकती है कि अब धमाकों का सिलसिला कम से कम आज तक के लिए थम जाए ताकि घायलों को उपचार के लिए अस्पतालों तक पहुँचाया जा सके.
तक यह बात पता नहीं लग पाई है कि इस सीरियल ब्लास्ट का जिम्मेदार कौन है, पर इतने सालों के अनुभवों का ख्याल रखते हुए अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल काम नहीं.असल मुश्किल है उन नामुरादों को समझाना कि इंसानी खून बहाकर लोगो में दहशत पैदा कर के कोई भी खुशी हासिल नहीं की जा सकती.काश! कि उन्हें समझ आ जाता.

आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 12 सितंबर 2008

१४४० मिनट....११३२ शिलाएं!!

दुनिया बहुत ही रंग-बिरंगी है।कब कहा क्या देखने सुनने को मिल जाए अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल।ऐसा ही कुछ गुजरा आज मध्य प्रदेश के सागर के रहेली में,जहाँ के विधायक गोपाल भार्गव ने कर डाले एक ही साथ(एक ही दिन में,महज ८६४०० सेकेंड्स या यूँ कहें १४४० मिनटों में) ११३२ परियोजनाओं के शिलान्यास।मान्यवर भार्गव हाल फिलहाल एम।पी। के कृषि मंत्री हैं,साथ ही अन्य दो विभागों की जिम्मेदारी भी उनके मजबूत कन्धों पर है. बात करें अतीत की तो, भार्गव साहब, सन १९८५ से ही रहेली से विधायक बनते आ रहे हैं पर आज भी वहां सड़क,स्कूल,अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं का खासा अभाव है,आज तक जब कुछ नही हुआ तो फ़िर क्या जरुरत आन पड़ी कि उन्होंने एक ही दिन में इतने सारे शिलान्यास कर डाले? मुद्दा,या फ़िर बात यह नहीं कि महज एक दिन में किए गए इतने परियोजनाओं के लिए आवंटित फकत २०० करोड़ रुपयों से क्या कुछ हो पायेगा,बात दरअसल यह है कि जो काम आज तक नही कर पाये वो अभी यकायक इतनी जल्दबाजी में क्यों?कहीं ये कोई सियासी मज़बूरी तो नही? जी हाँ,आपको याद दिला दें कि आने वाले नवम्बर महीने में वहाँ विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं.तो,अगर उन्होंने सारे शिलान्यास नहीं किए तो फ़िर चुनाव आचार संहिता आड़े आ जायेगी.समस्या फ़िर भी यथावत कि विधायक तो पिछले पौने पॉँच सालों से हैं फ़िर अभी क्यों? यह जानने के लिए जरुरत है इस मामले को एक नौटंकी से परे हटकर देखने की.ऐसा करने पर हम पाएंगे कि इन सबके पीछे कहीं न कहीं हम भारतीय ख़ुद ही जिम्मेदार हैं.चौंकिए मत! एक सवाल का जवाब दीजिये, सब आसान हो जाएगा.आज तक के भारतीय इतिहास में एक-आध अपवाद घटनाओं(दुर्घटनाओ) को छोड़ दें तो कौन सा ऐसा चुनाव है जो विकास कार्यों के नाम पर जीता गया? आज की तारीख में कौन सा ऐसा नेता है जो फकत विकास कार्यों के नाम पर चुनाव जितने का माद्दा रखता है? जवाब- शायद,शायद क्या,कोई नहीं. अब कारण क्या है?अन्य देशों में तो ऐसा होता है फ़िर हमारे यहाँ क्यों नहीं?दरअसल, हम भारतीयों की याददाश्त बहुत ही कमजोर होती है,हमें बड़ी से बड़ी घटनाओं को भुला देने के लिए चंद हफ्ते या महीने ही काफ़ी होते हैं.ऐसे में कोई भी राजनीतिक शख्स जब कोई अच्छा कम तभी करता है जब चुनावी तौर पर कोई फायदा होने वाला हो. पर एक समस्या अब भी बची रह गई,की ठीक है काम करना था तो करते पर इतने सारे की क्या जरुरत थी? साधारण सी बात है.क्या आपको लगता है,सिर्फ़ २०० करोड़ रुपयों और फकत २ महीनो में सारे काम पूरे हो जायेंगे?अगर ऐसा लगता है तो माफ़ कीजियेगा पर आपको बहुत ग़लत लगता है. बात यह है कि,भार्गव साहब को पता है चुनाव होने तक में कोई भी परियोजना पूरी नहीं हो पाने वाली फ़िर फायदा क्या,तो उन्होंने उठा लिया एक ऐतिहासिक कदम.लोग काम के लिए न सही कम से कम इतनी बड़ी घटना के रूप में तो याद रखेंगे ही,और इतना काफ़ी है उनकी चुनावी नैया पार हो जाने के लिए.और चाहिए भी क्या? भगवान,उनकी इस नेक कामना को पूर्ण करे.

आलोक सिंह "साहिल"

बुधवार, 3 सितंबर 2008

लालू का तमाशा:धूमिल हुई बाढ़ पीडितों की आशा

लालू का तमाशा:धूमिल हुई बाढ़ पीडितों की आशा
आज बाढ़ ने बिहार को बुरी तरह झकझोर कर रखा हुआ है।16 जिलों के 20 लाख से अधिक लोग सीधे तौर पर बाढ़ की चपेट में हैं,20 हजार से अधिक लोग लापता है,ढाई लाख एकड़ से अधिक की कृषि भूमि खाक हो चुकी है,राहत कैम्पों की हालत खस्ता है,लोग पत्ते खाकर जहरीले जानवरों के बीच जिंदगी को सहेज पाने की जद्दोजहद कर रहे हैं,और इस बीच वहां पैदा हो रहे बच्चे और उनकी माएं मूलभूत जरूरतों से भी महरूम हैं।
ऐसे हालात में,सेना और नौसेना के जवान प्राणपण से लोगों को बचाने में लगे हुए हैं,सीआरपीऍफ़ के जवान एक दिन की तनख्वाह दे रहे हैं,सार्वजनिक क्षेत्र की 12 कम्पनियाँ 30 करोड़ दे रही हैं,पंजाब,हरियाणा से लगाए देश के कोने कोने से सहायत मिल रही है,यहाँ तक कि सरहद के पार से भी मदद के लिए हाँथ आगे आ रहे हैं।
ऐसे में बिहार के अपने खासमखास,अपने राजनीतिक गोलगप्पे में बाढ़ का चटपटा पानी भरकर बेचने में लगे हुए हैं।
कहते हैं,राजनीति जो न कराये कम है।
एक तरफ़ जहाँ बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव,राहत कार्यों में देरी को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर दोषारोपण कर रहे हैं,वहीँ नीतीश कुमार,लालू पर बाढ़ की राजनीति करने का आरोप लगा रहे हैं.नेताओं के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं.पर,नैतिकता की पराकाष्ठा तो तब पार हो गई जब बाढ़-ग्रस्त बिहार के दौरे पर गए लालू यादव ने लग्जरी गाड़ी में बैठकर भूखे-नंगे बच्चों को 500 का नोट थमाकर लालू जिंदाबाद के नारे लगवाए।इसे क्या क्या कहा जा सकता है?
सच पूछिये तो,बाढ़ पीडितो के दर्द को यूँ तमाशा का रूप देना लालू जैसे बड़े नेताओं के बस की ही बात है.पर सवाल असल यह है कि वहां की जनता आस लगाये तो किससे,जब उनके अपने ही उनके ग़मों का माखौल उड़ाने पर अमादा हैं?

आलोक सिंह "साहिल"

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

खेल अंगुली करने का...

कुछ हफ्तों पहले जब मैंने "सियासत के कुत्ते" लिखा था तो तमाम दोस्तों ने निजी तौर पर शिकायत की कि यार,लिखा तो मजेदार है पर बहुत छोटे में लिखा,तो मैंने झट से जवाब दिया,ऐसी कोई बात नहीं है,मैं इसकी सीरिज बनाना चाहता हूँ और बहुत जल्द इसके अगले अंक के साथ आऊंगा,पर इस बात का ख्याल ही नही रहा,आज फ़िर ख्याल आया तो चला आया कुछ लेकर। खेल अंगुली करने का...
इंसानी फितरत भी अजीब होती है,कभी कभी हमारी महत्वाकांक्षाएं इतनी प्रबल हो जाती हैं कि हम किसी को भी अंगुली करने से गुरेज नहीं करते,चाहे वो हमारा कितना भी ख़ास या सहयोगी क्यों न हो?
जैसाकि आपको पता होगा,बीते कुछ महीने पहले हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में दो महान विचारों के गठबंधन के फलस्वरूप लोकतंत्र नामक तंत्र स्थापित हो पाया था।बड़ी खुशी की बात थी,हमारे लिए भी,अजी,हम आदर्श पड़ोसी जो ठहरे।पर महत्वाकांक्षा की जो तलवारें पहले से वहां मौजूद थीं,वो हमेशा इस नए तंत्र के उपर सरसराती रहीं।
उस वक्त,जरदारी साहब ने अपनी अयोग्यता को महानता में तब्दील करते हुए ख़ुद की जगह युसूफ रजा को प्रधानमंत्री बनवाया,तो नवाज साहब को लगा कि शायद जेल की चाहरदीवारी में रहते रहते उनमे कुछ महान गुणों ने जन्म ले लिया हो,लग गए साथ में।पर मांगो की तलवार सरसराती ही रही,जिन मांगों को लेकर जरदारी को सहयोग किया उनको पूरा करने में जरदारी की तरफ़ से हीला हवाली जारी रही। नवाज साहब इसी चक्कर में पड़े रहे और रोज सुबह शाम अपनी मांग दोहराते फिरते रहे,इस बीच जरदारी साहब, अमेरिका से अपना हिसाब किताब सेट करते रहे,साथ ही साथ नवाज साहब को गोली भी देते रहे।नवाज साहब भी बड़े भोले आदमी बेचारे गोली खाते रहे।इधर, जब जरदारी साहब को लगा कि अब अमेरिका से सेटिंग मुकम्मल हो गई है तो अपना पत्ता खोलते हुए कर दिया मुशर्रफ़ साहब को अंगुली,नवाज साहब खुश,उन्हें लगता रहा।जरदारी ने उनकी पहली मांग पूरी की है,माजरा तो कुछ और ही था।
सभी लोग खुशी मना रहे थे इसी बीच पीपीपी की तरफ़ से मुनादी हो गई कि राष्ट्रपति पद के लिए उनके उम्मीदवार जरदारी होंगे,यह सुनकर नवाज चपेटे में आ गए,उनको लगा कि भइया, कुछ गड़बड़ जरुर है,इसी के मद्देनजर उन्होंने अपनी दूसरी मांग को पूरा कराने की मुहिम तेज कर दी,पर महान अन्गुलिबाज का खिताब पा चुके जरदारी को पता था कि नवाज उनका कुछ नहीं उखाड़ सकते,आख़िर अमेरिका अब उनके साथ है।इधर,हैरान परेशान नवाज ने आनन् फानन में जरदारी का साथ छोड़कर अंगुली कर दी,पर टूटी हुई अंगुली भला जरदारी जैसा कमाल कहाँ से दिखाती? बेचारे नवाज,अब करें भी तो क्या,फ़िर वही पुराना काम............
अल्ला हो अकबर अल्लाह...
खुदा उनकी सुने, आमीन।

आलोक सिंह "साहिल"

बुधवार, 20 अगस्त 2008

...शोहरत की तलब...

बहुत रुसवा करती है ये शोहरत की तलब...
कहते हैं जिसे शोहरत के कीड़े ने काट लिया,उसे तो अल्लाह ही बचाए।जी हाँ,ऐसा ही कुछ हुआ है महाराष्ट्र के एक सांसद रामदास अठावले के साथ।
पिछले दिनों COLORS चैनल पर शुरू हुए बिग बॉस-२ के १४ सदस्यीय टीम में जगह न मिलने और उनके जगह संजय निरुपम के शामिल कर लिए जाने से अठावले महोदय का पारा अठावन्वें तल पर पहुँच गया।
बार विधायक और ३ बार सांसद रह चुके आरपीआई पार्टी के सांसद का आरोप है कि,चूँकि वह दलित हैं इसलिए उन्हें बिग बॉस २ जगह नहीं दी गई,और वे चैनल के खिलाफ अदालत में भी जायेंगे। इधर,इस वाकये से भड़के उनके पार्टी के सदस्यों और समर्थकों ने COLORS टी वी चैनल के दफ्तर में जमकर तोड़ फोड़ की और साथ ही साथ ठाडे,नागपुर और मुंबई में धरना प्रदर्शन भी किया।इतना ही नहीं बिग बॉस,यानी शिल्पा शेट्टी का पुतला भी फूंका।आलम यह रहा कि इनके प्रदर्शन के कारण घंटों सड़कें जाम रहीं और यात्रियों को श्रीमान अठावले के जूनून का शिकार बनना पड़ा।
अगर सामान्य तौर पर देखें तो यह एक खिसियाई बिल्ली का कारनामा है जो COLORS को नोचने में लगी हुई है,परन्तु, जो दुखद पहलू है इस घटना का,यह कि जिस जनप्रतिनिधि को आम जनता की बात करनी चाहिए,महंगाई से परेशान जनता के हित में प्रदर्शन करना चाहिए वह फकत अपने शोहरत के कीड़े के कारण अपने पद की गरिमा के साथ खिलवाड़ करने से भी बाज नहीं आया।यह एक शर्मसार कर देने वाली घटना है।
परन्तु, मेरा मानना है कि इस घटना को एक सांसद रामदास अठावले से न जोड़कर,एक आम इंसान रामदास अठावले से जोड़कर देखा जाना चाहिए,वैसे भी कीड़े कभी पद पूछकर नहीं काटते...
आलोक सिंह "साहिल"

मंगलवार, 19 अगस्त 2008

एक आस,खुशहाली की...

आज जब, एक के बाद एक धडाधड न्यूज और मनोरंजन के चैनल्स खुलते जा रहे हैं और हमारा आम दर्शक कन्फ्यूज हो चला है कि, क्या देखें और किसे देखें?इसी देश में एक ऐसा वर्ग भी है जो आज भी टी वी के सामने ख़ुद को असहाय महसूस करता है।जी हाँ,पुरबिया (भोजपुरिया) वर्ग।ऐसे में १५ से २० करोड़ की इस आबादी को लक्ष्य कर शुरू किया गया भोजपुरी भाषा का पहला चैनल "महुआ" काफ़ी सुकून देनेवाला है। बात करें क्षेत्रीय भाषा के चैनल्स की तो,आज की तारीख में बांग्ला से लगाये गुजरती,मराठी,पंजाबी,तमिल,तेलगु,मलयालम आदि लगभग हर भाषा के चैनल्स मौजूद हैं,जिनका प्रभाव क्षेत्र कतई अपेक्षाकृत अधिक नहीं है।ऐसे में,इतनी बड़ी आबादी को हमेशा नजरअंदाज किया गया,तब जबकि भोजपुरी का प्रभुत्व भारत से बाहर फीजी,मारीशस और सूरीनाम जैसे देशो तक है। एक अदद भोजपुरी चैनल की इस कमी को देखते हुए मीडिया जगत से जुड़े श्री पी के तिवारी ने तमाम तरह के रिस्कों को दरकिनार करते हुए पहल की।यह निश्चय ही एक बेहद साहसिक और प्रशंसनीय कदम है।इसके लिए श्री तिवारी बधाई के पात्र हैं। साथ ही सभी पुरबिया लोगों के लिए यह एक अविश्वसनीय सी लगने वाली खुशी है। श्री तिवारी के इस हौसले और साहस को देखते हुए बालीबुड में अपनी धमक रखने वाले एक और पुरबिया,प्रख्यात फ़िल्म मेकर प्रकाश झा भी बेहद उत्साहित हैं और उन्होंने ख़ुद को "महुआ" से जोड़ लिया है।ख़बर यह भी है कि वे महुआ के लिए धारावाहिकों का निर्माण भी करेंगे।इससे बड़ी सौगात पुरबिया लोगो के लिए शायद ही कुछ और हो।आशा करते हैं कि जिस तरह महुआ बूंद बूंद टपकता है उसी तरह "महुआ" हरपल खुशहाली टपकाती रहे,मनोरंजन टपकाती रहे। तो,पुरबिया साथियों!हो जायिए तैयार...

आलोक सिंह "साहिल"

शनिवार, 16 अगस्त 2008

......स्वंतत्रता दिवस मुबारक

फ़िर वो दिन आया और चला गया जब पुराने संदूकों के मुरचा खाए ताले खुले,कुछ रंग बिरंगी आयताकार आकृतियाँ बहार निकलीं,कुछ साफ़ सुथरे कपड़ा पहने सभ्य लोगों ने सुबह सुबह तमाम जगहों पर ३ रंगों वाली आयताकार आकृति को तिरंगे का नाम देकर गौरवपूर्ण अंदाज में फहराया,कुछ फूल धरती पर गिरे,तालियों की गडगडाहट और फ़िर कुछ मिष्ठान के नाम पर लम्बी धक्का पेल लाईनें,और ठीक इसके पहले कुछ घंटों तक हमारे साफ़ सुथरे लोगों ने अपनी साल भर की बचायी हुई जुबानी जमाखर्च का जमकर मुजाहिरा किया,और साथ ही क्षणेक के लिए जागृत हो उठा देश के हर नागरिक के दिल में सरफरोशी की तमन्ना।जी हाँ,आखिरकार कल हमारे आजादी का दिन जो था। इस झंडे वाली सुबह की ठीक पहले वाली रात को होती रही मैसेजिंग की भरमार और आधी रात से ही झंडे वाले पूरे दिन तक मोबाईल की सारी लाईनें व्यस्त रहीं।शाम को जब दिनभर की मेहनत से फुर्सत पाकर जब टी वी/ रेडियो आन किया तो अप्रत्याशित तौर पर धमाकों और हताहतों की खबरें समाचारों से नदारद थीं,उनकी जगह ले रखी थी हमारे नेतागणों की भावानाफोदू भाषण-बाजियों ने जिसे सुनकर रगों का लहू उबाल लेने लगा,पर बरसाती मौसम में पंखे और कूलर की ठंडक लगते ही हमारी पेशियाँ सिकुड़ने लगीं तबतक वक्त हो आया था सपनों में खोने का।हो गया,"स्वतंत्रता दिवस मुबारक" आपको भी,६१वें स्वतंत्रता दिवस की ढेरों शुभकामनाएं.
आलोक सिंह "साहिल"

बुधवार, 13 अगस्त 2008

.....मुझको अब महरूम ना कर.

.....मुझको अब महरूम ना कर.
गुरबत की बात हमसे ना छेडो दिलबर,

आँख मेरे रोये हैं विसाल में भी।

बावस्ता रहा हूँ मैं चाँद खुशियों से ही,

तन्हाई की अब रात ना दिखाओ दिलबर।

तेरी हर एक हँसी में घुला है मेरे जिगर का लहू,

मेरे जिगर के टुकड़े को यूँ नीलाम ना कर।

तुम हँसी हो बहुत छुपाने की नहीं बात सनम,

तेरे विसाल को तडपता रहा हूँ सदियों से।

मेरा ईमान भी लुट जाए तो जाने दो सनम,

तेरी बंदगी से मुझको अब महरूम ना कर.
आलोक सिंह "साहिल"

मंगलवार, 12 अगस्त 2008

हिन्दुस्तान: धमाकों का देश

!!8 साल 69 से अधिक जिहादी धमाके,1200 से अधिक मौतें!!
हिन्दुस्तान: धमाकों का देश
सोने की चिडिया,जगत का सिरमौर हमारा हिन्दुस्तान आज जिहादियों की ऐशगाह और शांतिप्रिय नागरिकों की मौतगाह बनता जा रहा है. कभी जम्मू कश्मीर,असम,छत्तीसगढ़,मध्य प्रदेश जैसे राज्यों तक सिमटा जिहादी आतंकवाद आज देशव्यापी हो गया है.तो ऐसे में क्या दिल्ली,क्या वाराणसी,क्या हैदराबाद,क्या जयपुर और क्या अहमदाबाद?सब बराबर हो गया है.कभी कभी लगता है कि समानता और समरसता की जो भावना सदियों से आजतक हम हिन्दुस्तानियों में नही जागृत हो पाई आज वो जिहादियों ने पैदा कर दी.आज की तारीख में पूरा हिन्दुस्तान एक समान हो गया है क्योंकि मौत हर जगह बराबर में मिलती है. आइये पिछले तीन सालों के आंकडों पर नजर डालें-
तारीख वर्ष जगह मौतें
१. २५ अगस्त २००५ मुंबई ४६
२. २९ अक्तूबर २००५ दिल्ली
. ७ मार्च २००६ वाराणसी २१ ४. ११ जुलाई २००६ मुंबई २०९५. ८ सितम्बर २००६ मालेगांव ४०६. १९ फरवरी २००७ पानीपत ६६७. १८ मई २००७ हैदराबाद १२८. २५ अगस्त २००७ हैदराबाद ४२९. १३ मई २००८ जयपुर ६३१०.२५ जुलाई २००८ बंगलौर ०१ ११. २६ जुलाई २००८ अहमदाबाद ५३
ये आंकड़े इस बात को चीख चीख कर बयां कर रहे हैं कि अब हिंदुस्तान सुरक्षित नहीं रहा.एक चौंकाने वाला तथ्य यह है कि इस्लामी आतंकी गतिविधियों में होने वाली मौतों में पूरे विश्व में हिन्दुस्तान का इराक़ के बाद दूसरा स्थान है,जो हमें नख से शिख तक शर्मसार कर देने के लिए काफ़ी है. बात करें हमारे रहनुमाओं की तो आज भी उनकी प्रतिक्रियाएं वैसी ही हैं जैसे पहले आती थीं.जब वे सत्ता में होते हैं तो जिहाद का रोना रोते हैं और मुआवजे बाँटते हैं और जब विपक्ष में होते हैं तो आरोपों की झडी लगा देते हैं.पर हकीकत यह है कि हैं सभी एक ही तवे के सेंके हुए. फ़िर भी हम बात करते हैं सर्वशक्तिमान बनने की,अमेरिका की बराबरी करने की,अरे, हमें तो किसी गटर में डूब मरना चाहिए.क्या आपको नहीं पता है कि ९/११ के बाद अमेरिका में जिहाद के नाम पर पटाखे तक नही फूटे वहीँ इस दरम्यान हमारे देश में तकरीबन १२०० लोग जिहाद के नाम पर हलाक हो गए.ये फर्क है सर्वशक्तिमान अमेरिका और शेखचिल्ली सा ख्वाब सजाये हिन्दुस्तान में. कहते हैं हर अति की इति होती है,पर यह क्या,यहाँ तो किसी के कान पर जूं तक नहीं रेंगती.सभी मस्त हैं अपनी राजनीति बजाने में.कोई अमरनाथ श्राईन बोर्ड मसाले पर,कोई सेतुसमुद्रम पर,कोई नंदीग्राम पर तो कोई कलावती पर. आख़िर,हम गुहार लगायें तो किससे?जागो अब तो जागो....
आज अगर खामोश रहे तो कल सन्नाटा छायेगा,
हर बस्ती में आग लगेगी,हर बस्ती जल जाएगा।
सन्नाटों के पीछे से तब एक सदा ये आयेगी।
कोई नही है,कोई नही है,कोई नही है कोई नही.
आलोक सिंह "साहिल"

बुधवार, 16 जुलाई 2008

.....ख्वाब में जीता रहूँ!!

.....ख्वाब में जीता रहूँ!!
तुमसे मिलना तो पहले इत्तफाक ही था,
पर क्या इत्तफाक कि इत्तफाक से मोहब्बत हो गई।
ढूंढ़ता रहता हूँ तुझे हर वक्त,हर घड़ी गली - गली,
पर अजीब इत्तफाक ,आज फ़िर तू ख्वाबों में ही मिली।
तेरा मिलना भी यूँ तो कम खुशगवार नहीं,
काश तू समझती,ख्वाबों से इतर भी दुनिया हसीं होती है।
रहता है इंतजार हर पहर तेरे ख्वाबों का,
ख्वाबों से बाहर आना तेरा मुनासिब जो नहीं।
चाहता हूँ तुझको बसा लूँ अपने पलकों पर,
हर वक्त नजरें बंद हों और ख्वाब में जीता रहूँ.
आलोक सिंह "साहिल"

शनिवार, 12 जुलाई 2008

मैया मैं तो...परमाणु लैन्ह्यो

हमारा प्यारा भारतवर्ष एक प्रगतिशील देश है जिसकी प्रगतिशीलता का अंदाजा ११.६३ फीसदी की मंहगाई दर से ही लगाया जा सकता है.शायद लोगों को पता नहीं कि हमारे पीएम से लगाये योजना आयोग के उपाध्यक्ष और वित्तमंत्री सभी अर्थशास्त्री हैं.फ़िर भी लोग तो लोग हैं कि झुठ्मुथ में मंहगाई का रोना रो रहे हैं. खैर,किसी भी देश के अधिकाधिक विकास के लिए सबसे बड़ी जरुरत होती है उर्जा की.सच्ची बात तो यह है कि सभी मिलकर सबसे जरुरी काम पर अपना दिमाग खपा रहे हैं.अब उर्जा जैसी बड़ी समस्या से निपटने के लिए मंहगाई जैसी छोटी मोटी समस्याओं को इग्नोर तो करना ही पड़ता है .आख़िर बात देश के विकास की जो ठहरी.वैसे भी अगर मंहगाई है तो यह भी तो एक सूचक ही है कि हमारे यहाँ मंहगे मंहगे सामान बिकते हैं इसके मायने है कि हम अमीर हो रहे हैं,आखिरकार पैसा घूमफिरकर देश में ही तो रह रहा है. एक कहावत आपने सुनी होगी अंधे के हाँथ बटेर लगना.जी हाँ,हमारे रहनुमा अभी विचार मंथन में लगे ही हुए थे कि कैसे इंडिया को चमकाया जाए,कि एक पुराने शुभेच्छु देश ने एक उर्जावान प्रस्ताव दे दिया.भूखे को क्या चाहिए दो जून की रोटी ही न!फ़िर क्या था सभी आन्ख्मुन्दकर चिल्लाने लगे कि अगर फलां डील हो गया तो हम भी अमेरिका जैसे हो जायेंगे.ये तो पता ही है कि उर्जा आएगी तो लाईट आएगा और लाईट आएगा तो देश चमकेगा ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका चमकता है.इतनी सी फंडामेंटल थ्योरी है.अजी कहने वाले तो कहते रहें कि देश की सुरक्षा के लिए जरुरी परमाणु परीक्षणों पर रोक लग जायेगी,देश उस सहयोगी का पिट्ठू बन जाएगा पाकिस्तान की तरह,वगैरह वगैरह...लोग भी अजीब हैं,अरे भाई जब डील के बाद जब हम अमेरिका बन ही जायेंगे तो क्या जरुरत है किसी परिक्षण वरिक्षण की.लोग भी न... हाँ जी,तो हमारी सरकार को लगा कि भइया ४ साल बिता दिए पर कुछ भी ऐसा नहीं उखाड़ पाए कि अगले चुनाव में गा सकें,चलो इसी बहाने एक नया गाना तो मिल जाएगा गाने को.पर हमारे बायें वाले भइया लोग पता नही क्या खुन्नस है हमारे मनोहारी साहब से. तो साहब आज तक़रीबन डेढ़ साल होने को है जब से हमारे पीएम साहब निरंतर रोना लगाये हैं कि मैया(भइया) मैं तो चन्द्र खिलौना(परमाणु) लैह्यों.पर भाई जी लोग माने ही नही तभी उत्तर कि तरफ़ से से एक भाई साहब सायिकिल पर बैठे हाँथ में लालटेन लटकाए चले आए,अब जाके हमारे पीएम साहब को आशा की किरण दिखी कि अब तो कुछ भी हो जाए सयिकिल पर बैठकर परमाणु तो लायेंगे ही.धन्य है श्रृष्टि के परम अणु.
आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

नमूने...एक से बढ़कर एक!!

नमूने...एक से बढ़कर एक!! भारत एक स्वतंत्र गणराज्य है,यहाँ के नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली हुई है.हर एक व्यक्ति की अपनी शैली है,अपना अंदाज है.कोई तो स्लैंग्स का प्रयोग ज्यादा करता है तो कोई रुक रुक कर बोलता है.पर कहीं न कहीं सबका एक ही मकसद होता है ख़ुद को अधिक माडर्न या औरों से अलग सिद्ध करना. इस मामले में हमारे टीवी चैनल वाले और हमारे फिल्मी हीरो भी पीछे नहीं हैं.आख़िर हों भी कैसे?आपने वह सूक्ति नहीं पढ़ी क्या,सिनेमा समाज का आईना होता है. आते हैं मुद्दे पर.हाल ही में हमारे एक मनोरंजन चैनल ZTV ने एक नया कार्यक्रम शुरू किया.reallity shows की रंगरूट दौड़ में एक नया रंगरूट.शो शुरू करने के पहले कार्यक्रम के निर्माता निर्देशकों के सामने बड़ी समस्या थी कि आजकल तो बहुतेरे स्टार टीवी पर reallity shows प्रस्तुत करते हैं,फ़िर इसे अलग कैसे बनाया जाए,उनकी इच्छा थी कि कार्यक्रम को नमूना बना दिया जाए.इसके लिए उन्हें तलाश थी एक नमूना दिखने वाले चेहरे की तो लो जी उन्होंने भोजपुरी फिल्मों के स्टार रविकिशन को पकड़ लिया और शुरू कर दिया नाचने गाने वाला एक reallity show. मैंने पहले ही कहा हर इन्सान की अपनी शैली होती है तो रविकिशन भाई का भी अपना अंदाज है,(आखिरकार वो भी स्टार हैं).आजतक उनकी जो पहचान बनी वो भोजपुरी फिल्मों से बनी पर यहाँ तो हिन्दी/अंग्रेजी बोलने उतार दिया वो भी सीधे मंच पर.कार्यक्रम के संचालन से पहले उन्होंने ढेर सारा भोजपुरी का हिन्दी अनुवाद और हिन्दी का अंग्रेजी अनुवाद रटा पर जब मंच पर उतरे तो अपनी असलियत नहीं छुपा सके.शुरू हो गए एक घटिया खिचाडिया अंदाज में.अब उनको कौन समझाए कि ये मॉरिशस नहीं इंडिया है.अरे भाई हम मानते हैं कि भोजपुरी पसंद करने वालों का एक बड़ा वर्ग हमारे यहाँ है पर जो कार्यक्रम पूरे देश में एक साथ चल रहा हो वहां इत्ती घटिया भोजपुरी नहीं शोभती न.अब आप लालू प्रसाद यादव तो हैं नहीं. वैसे ही हमारी भोजपुरी अभी तक एक भाषा का दर्जा नहीं पा सकी है,आज भी उसे आठंवी अनुसूची में स्थान दिलाने के लिए लड़ाई लड़ी जा रही है,उस पर से तुर्रा ये कि आप उसे आम लोगों के बीच इतने गंदे तरीके से पेश कर रहे हैं.....ग़लत बात.वैसे भी बात किसी भाषा की नहीं है.आप हिन्दी बोलें, भोजपुरी बोलें,अंग्रेजी बोलें या फ़िर कुछ और ही बोलें मुझे कोई आपत्ति नही,पर कृपा करके किसी भी भाषा की टांग न तोडें. आलोक सिंह "साहिल"

सोमवार, 30 जून 2008

एक नज्म...आपके नाम..

एक नज्म...आपके नाम॥
अब तो आ जा, बहुत तडपाती है तेरी दूरी।
सहरा में चलते चलते प्यास तो लग ही जाती है।
या खुदा काश! वो दिन भी कभी आ जाए,
कारवां आपका मेरे भी रूह में ठहरे।
कह न पाए अब तलक जो लब मेरे,
बात वो मेरी नजर कह गुजरे।
धीरे धीरे आप पर भी हो असर,
जिस गम-ए-इश्क से हैं हम गुजरे।
बिन पिये ये कैसा नशा है साकी?
बन के शैदा वो मेरे ही कातिल निकले.

आलोक सिंह "साहिल"

मंगलवार, 24 जून 2008

आज मैं बाईस का...अलविदा...

आज मैं बाईस का...अलविदा... हरबार की तरह इसबार भी कुछ आशाओं,कुछेक निराशाओं ,कुछ अजीज सफलताओं तो कुछ क्षणिक विफलताओं के पुलिंदे को गट्ठर बनाकर जब अपने यादों के पिटारे में डालने के लिए उसे खोला तो पाया सभी पुलिंदों ने अपने चेहरों पर मुस्कराहट सजा रखी है.पता नहीं उनकी मुस्कराहट क्या बयां कर रही थी?शायद यही कि बेटा खुश हो ले,आज तूने एक और साल खो दिया. यह बात मन में आते ही मैंने विरोध करना चाहा,कि नहीं...नहीं....मैंने खोया नहीं बल्कि..इसे जिया है,तब तक बहुत देर हो चुकी थी.पिटारा ख़ुद बखुद बंद हो चुका था.शायद अगले साल खुलने की तयारी करने. खैर,थोड़ा तस्कीन से जब सोंचने बैठा तो तमाम उमंगें जवां होने लगी,शायद सफलता की कुछ बहुप्रतीक्षित इबारतें इसबार लिखी जायें.पर फ़िर भी मैं ख़ुद को किसी एक बात पे संतुष्ट नहीं कर पा रहा हूँ कि मैं खुश हूँ या उदास?अब बात ये भी है कि खुशी किस बात की?या उदासी का क्या सबब हो सकता है? एक बड़ी खुशी जो हो सकती थी वो तो पिछली बार ही पिटारे में पहुँच चुकी थी तब मैं वयस्क हुआ था. आज रह रहकर वो पल मुझे गुदगुदा रहे हैं,जब मैं २१ का हुआ था.तब मैं खासा प्रसन्न था वरन उससे अधिक उत्साहित था.बचपन से ही मन में फैन्तेशी थी कि कब मैं बड़ा होऊं और बड़ों के बड़े बड़े काम बेझिझक कर सकूँ? मैं अपने घर में सबसे छोटा हूँ तो शायद इसलिए भी यह ग्रंथि मन में थी कि अब मैं बच्चा नहीं हूँ बड़ा हूँ.कोई चाहकर भी मुझे बच्चा नहीं कह सकेगा. पर आज मैं दुखी हूँ,मुझे मेरा बचपन आज बहुत आकर्षित कर रहा है,रह रहकर मुझे चिढा रहा है.अब मैं पहले जितना आजाद नहीं रहा.तमाम जिमेदारियां,तमाम चिंताएँ.जी करता है सारी मर्यादाएं तोड़कर एकबार फ़िर अपने शुरूआती पुलिंदों में खो जाऊँ.पर मर्यादाविहीन होकर भी जिया जा सकता है क्या...? शायद तब मैं यह नहीं सोंचता था,क्योंकि मर्यादा नामक चीज तब मेरे पल्ले ही नहीं पड़ती थी. पर धीरे धीरे इस एक साल में मैंने हकीकत के साथ समझौता कर लिया है ( इंसानी जिंदगी में कितने ही समझौते करने पड़ते हैं,काश हम angel होते!!)जान लिया कि यही सच्चाई है और इसी के साथ जीना है.जीना है उसे जिसे हम जीवन कहते हैं.दुहाई हो ऐसे जीवन की. अब तो घंटी बज चुकी है.मेरे प्रिय पुलिंदे, तुझे जाना ही होगा क्योंकि अब कोई और तेरी जगह लेने को बेकरार है.न चाहते हुए भी तुझसे अलविदा कहना पड़ेगा,क्योंकि चाहते हुए भी तुझसे मिलने का वक्त नहीं निकल पाउँगा,क्योंकि जन्दगी में रिवर्स प्रोसेस नहीं होता.मैं कोशिश करूँगा कि इस नए वाले के साथ ताल्लुकात अच्छे बना सकूँ और कभी क्षणभर के लिए ही सही ख्यालों और कल्पनाओं में ही सही तुझसे गलबहियां कर सकूँ. खुशी है कि आज तक तूने हर वक्त मुझे हंसने और खुश होने का मौका दिया,बदले में मैंने भी तुझे बेपनाह प्यार किया.तुम मुझे ग़लत न समझना क्योंकि धन्यवाद कहकर तुझे शर्मिंदा नहीं कर सकता.अरे.............मैं किस्से बात कर रहा हूँ?तू तो कबका पिटारे में जा चुका है.ओह...तेरी यादें...कमबख्त...अलविदा अलविदा अलविदा....... शेर मेरे कहाँ थे किसी के लिए, मैंने सबकुछ लिखे थे तुम्हारे लिए. अपने सुख दुःख बड़े खुबसूरत रहे,हम जिए भी तो एक दूसरे के लिए.
आलोक सिंह "साहिल"

सोमवार, 23 जून 2008

हमारी हिन्दी और डोपिंग... बदलती हुई दुनिया के साथ कदमताल मिलाने के चक्कर में हमने पश्चिमी सभ्यता को इस तरह अपनाना शुरू कर दिया कि,अब दूर से ही हमसे पश्चिम की बू आने लगी है.यूँ कहें,हम ख़ुद ही आधे अधूरे पश्चिमी हो गए हैं. बात हमारे पहनावे की हो,खान पान की आदतों की या फ़िर हमारी भाषा की,हर लिहाज से हम बिचबिचवा(दोयम) पश्चिमी लगते हैं. बात भाषा की- हैं तो हम मूलरूप से हिन्दीभाषी,पर अंग्रेजी की डोपिंग(मिलावट) इस कदर हो गई है कि यह समझ पाना मुश्किल हो चला है कि अमुक व्यक्ति हिन्दी बोल रहा है या अंग्रेजी?चलिए,एक अच्छी सुविधा तो हुई,नई भाषा के लिए नया नामकरण,"हिंग्रेजी" किसी भी भाषा को ग्राह्य बनाने के लिए डोपिंग समझ में आती है पर ऐसी भी क्या की मूल भाषा ही धूंधनी पड़ जाए. इसे एक उदहारण से समझा जा सकता है,ग्वाले(दूध बेचने वाले) भाईयों का जन्मसिद्ध अधिकार है दूध में पानी मिलाना,यह बहुत कुछ वैसा ही जैसे नेताओं द्वारा घोटालों को अंजाम देना.जी हाँ,तो पहले के ग्वाले दूध में पानी मिलाते थे पर आधुनिक कल्चर में ख़ुद को ढालते हुए आजकल वे पानी में दूध मिलाने लगे हैं. तो बात स्पष्ट है,पहले हमारी हिन्दी को अधिक लोकप्रिय और ग्राह्य बनाने के लिए उसमें अरबी,फारसी,उर्दू,पोश्तो आदि के साथ अंग्रेजी भी मिलाया जाने लगा पर अब तो लगता है कि एक सिर-पूंछविहीन खिचडी भाषा को और रोचक व् मसालेदार बनाने के लिए उसमें हिन्दी भी मिला लिया जाता है,सनद रहे,नाम फ़िर भी हिन्दी ही रहता है. हिन्दी की बात चल रही है तो एक घटना यद् आ रही है.आस्ट्रेलियाई क्रिकेटर ब्रेट ली ने अपने भारत प्रेम को और अधिक पुख्ता करने के लिए यहाँ की प्रचलित भाषा हिन्दी सीखने के लिए बहुत दिनों महीनों तक मेहनत की पर असफल रहे.एक पत्रकार ने जब उनसे इस बाबत पूछा तो उनका जवाब था-"यार,मैं आजतक हिन्दी नहीं सीख पाया.यहाँ के लोग हिन्दी बोलते ही कहाँ हैं?हिन्दी में तो अधिकतर अंग्रेजी ही रहती है.सीखूं तो सीखूं कैसे?" बात अब पहले से अधिक स्पष्ट हो चुकी होगी.तो अब समस्या यह है कि आख़िर वजह क्या है, तो कहीं न कहीं यह हमारी अमेरिकी या यूरोपीय न होने की कुंठा में ही निहित है(हम भारत में क्यों जन्मे?हम औरों से बेहतर हैं.जाने किससे....?). मैं मानता हूँ कि किसी भी भाषा के विकास के लिए उसका अपभ्रंशित होना कहीं न कहीं फायदेमंद होता है,पर ऐसा भी क्या अपभ्रंश कि हमारी हिन्दी का अंश भी तलाशना मुश्किल हो जाए.
आलोक सिंह "साहिल"

शनिवार, 21 जून 2008

दस का दम,...पानी फ़िर भी कम...

दस का दम:शोर पुरजोर पर पानी फ़िर भी कम
भारतीय इलेक्ट्रोनिक मीडिया का यह शैशवकाल है,इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता है।इस अवस्था में वृद्धि बहुत तेजी से होती है,तमाम आयामों में विस्तार भी द्रुतगामी होते हैं.पर दुर्भाग्य से उस वक्त आप यह नहीं तय कर सकते कि विस्तार किस दिशा में हो,बस विस्तार हो जो कि हो रहा है. इलेक्ट्रोनिक मीडिया में,बात करें मनोरंजन के चैनलों की तो सालों तक सास-बहू के झमेले दिखाने और इससे पैसे बनाने के बाद उनको हिट होने का एक नया शिगूफा मिल गया है,reallity shows.कभी बिग बी ने लोगों को करोड़पति बनाया(लोग बने या न बने,ख़ुद दिवालियेपन से उबरकर अरबपति बन गए.) तो कभी किंग खान ने गद्दी हथियाई.कभी गोविंदा तो कभी संजू. कभी कोई तो कभी कोई. इन दिनों स्टार वालों ने शाहरुख़ को लेकर "क्या आप पांचवीं पास से तेज हैं?"शुरू किया तो बालीबुड के दूसरे खान यानि हमारे सल्लू मियां ने भी कमर कस ली,उनका साथ दिया सोनी इंटरटेनमेंट वालों ने,और साथ ही दिया हर एपिसोड के तकरीबन एक करोड़ रुपये,नाम रखा "दस का दम". चूँकि,इसके माध्यम से सलमान पहलीबार छोटे पर्दे पर उतर रहे थे तो दर्शकों में रोमांच भी बहुत था कि कोई explosive package ही होगा.धीरे धीरे इसके प्रोमो ने टीवी चैनलों पर अपना जलवा दिखाना शुरू किया.लोगों को लगा ओजी,ये तो बम है.तरह तरह से इसको प्रचारित प्रसारित किया गया.कभी सल्लू बनियान में दिखते तो कभी माथे पर सब्जी लिए. खैर,वह शुभघड़ी (शायद) भी आ गई जब "दस का दम" का पहला एपिसोड दर्शकों के सामने परोसा गया.हमने भी अपने चश्मे को दुरुस्त करते हुए नजरें टीवी पर गडा दीं,क्योंकि हम नहीं चाहते थे कि इस कार्यक्रम का कोई भी पहलू हमसे छुट जाए.पर ये क्या?इसमें तो केवल शोर ही शोर है.भौंडे सवालों और घटिया व् बेशर्म जवाबों की भरमार है.बुरा लगा,पर क्या करें,अब सलमान से इससे अधिक की अपेक्षा करना भी बेमानी ही है. यही क्या कम है कि बेचारा अपनी reallity को छोटे परदे पर भी कायम रखा? बेचारे चैनल वाले भी क्या करें?उन्हें भी तो भेंडचाल में ख़ुद को बनाये रखना है.आख़िर ये उनके अस्तित्व कि लडाई जो ठहरी.वैसे भी उनका दबाव समझा जा सकता है.किसी एक दिन के ६,७ घंटे के लिए डेढ़ दो-करोड़ रुपये खर्च करना मायने रखता है.अब इतना खर्च करने पर इसकी भरपाई भी तो होनी ही चाहिए.यही कारण है कि अश्लील भाषा से लेकर अश्लील हरकतें(तथाकथित माडर्न भाषा शैली.) तक सभी कुछ झोंक दिया पर फ़िर भी पानी कम. सच कहें तो टीआरपी की गलाकाट प्रतिस्पर्धा में और कुछ हुआ हो या न हुआ हो पर मनोरंजन नामक बला की बुरी तरह बज चुकी है.टीआरपी के नाम पर सब जायज है.अब ख़ुद मनोरंजन को भी ख़ुद पे शर्म आती होगी कि वह कितने ही चैनलों और स्टारों के मानसिक दिवालियेपन की वजह बन बैठा. इस कार्यक्रम में सबकुछ रखा गया जो की किसी कार्यक्रम के हिट होने के लिए अपेक्षित है फ़िर भी देखने के बाद यही लगा... दस का दम:शोर पुरजोर पर पानी फ़िर भी कम...

आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 20 जून 2008

राजनीति की सलीब...

राजनीति की सलीब... पिछले दिनों भारत की दूसरी बड़ी राजनितिक पार्टीभाजपा के राष्ट्रिय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने संवैधानिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष शब्द की वैधानिकता पर सवाल खड़ा कर दिया। थोड़ा मूल में चलें तो,जब नवम्बर १९४९ को हमारे स्वतंत्र देश भारत का संविधान बनकर तैयार हुआ तो इसकी प्रस्तावना (preamble) में मूलरूप से भारत को एक प्रभुसत्ता संपन्न लोकतान्त्रिक गणराज्य(sovereign,democratic,republic) का दर्जा दिया गया।संविधान सभा के अध्यक्ष बाबा साहब डाक्टर भीमराव अम्बेडकर ने भी कहा था "इसे संविधान की आत्मा समझा जाय,किसी अनुच्छेद के लिए कोई भ्रम हो तो उसे संविधान की प्रस्तावना के परिप्रेक्ष्य में देखकर निर्णय लिया जाय।" परंतुहमारे देश के रहनुमाओं ने इसे अपने फायदे के अनुसार उलट पलट कर इस्तेमाल किया।सन १९७६ में इंदिरा गांधी की सरकार ने ४२ वाँ संविधान संशोधन करके संविधान की मुल्प्रस्तावाना में secular और socialist शब्द जोड़ दिया जिससे भारतीय संविधान की आत्मा का रूप बदलकर sovereign,secular,socialist,democratic,republic हो गया। ऐसा नहीं है की इस बदलाव के पहले संविधान में socialism या secularism की बात नहीं थी।अनुच्छेद २५ से ३० तक में secularism निहित है तथा संविधान के भाग ४,नीतिनिदेशक तत्वों में socialism की व्याख्या भी है,परन्तु इस बदलाव के तहत इसे उभारा गया। इस बदलाव का मकसद साफ़ था,वोटबैंक आधारित राजनीति । संविधान में निहित secular का मतलब था सर्वधर्म समभाव परन्तु secular शब्द को धर्मनिरपेक्षता का अर्थ देकर खुलेआम धर्म आधारित राजनीति की गई वरन अब भी जारी है.आज कुछ एक दलों को छोड़ दें तो कांग्रेस,वामदल,बसपा,सपा,जनता दल,राजद से लगाए लगभग सभी राजनितिक दल ख़ुद को secular यानि धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करते हुए वोटबैंक बढ़ाने में लगे हुए हैं. जबकि तकनिकी या राजनीतिक दृष्टि से secular का अर्थ धर्मनिरपेक्ष नहीं होता.यहाँ तक कि संशोधित संविधान की जो हिन्दी प्रति छपवाई गई उसमे भी secular की जगह पंथनिरपेक्षता रखा गया है.परन्तु वोट की राजनीति की खातिर सभी राजनीतिक दलों ने तथाकथित तौर पर धर्मनिरपेक्ष होने का स्वांग रचा और निरंतर भारत की भोली जनता को उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहे. अगर गौर करें तो इस शब्द का लाभ लेकर केवल कांग्रेस या वामदल जैसे दलों ने ही मलाई नही काटी वरन धर्म का तमगा लेकर चलने वाली भाजपा ने भी इससे मजे किए. कभी तो जम्मू कश्मीर में धारा ३७० तो कभी एकसमान नागरिक संहिता की बात पर बवाल मचाया.वक्त के साथ साथ रंग बदलते हुए कभी एकात्म मानववाद तो कभी प्रचंड राष्ट्रवाद का नारा बुलंद कर अपने वोट की झोली का वजन बढाते रहे. पर अब जबकि भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की तो फ़िर एकबार इसके निशाने पर अपना चुनावी उल्लू सीधा करना ही है.जाने कबतक इस क्षनिक राजनीतक लाभों की सलीब पर हमारी राष्ट्रिय एकता बलि चढ़ती रहेगी. आलोक सिंह "साहिल"

गुरुवार, 5 जून 2008

यह एक राजनीतिक साजिश है...

यह एक राजनीतिक साजिश है...

बचपन से ही मेरे मन में एक फँतेशी थी कि काश मैं भी किसी अदालती करवाई को देखता.बड़े होने के साथ-साथ ये शौक भी बढ़ता गया,पर इन दिनों कुछ अलग ही बात हुई.जब भी सुबह पेपर खोलता कोई न कोई अदालत का मामला देखने को मिल जाता,सच कहूँ तो मेरा शौक सर चढ़ने लगा.वैसे फिल्मों में तो बहुत बार देखा,अब तो न्यूज़ चैनल्स वाले भी हमारी इस फैंतेशी को समझने लगे हैं,पर दुःख वही कि सच्ची वाला नहीं देख पाए. तभी अचानक अखबार के फ्रंट पेज पर एक बहुत बड़ा हाई प्रोफाईल मामला दिखा,जिसका फ़ैसला दूसरे दिन होना था.मामला कुछ यूं था... एक लड़की के प्रेमी को लड़की के दो राजकुमार भाईयों ने पहले हथौडे से कुंच कुचकर चोखा बनाया,फ़िर स्वाद नहीं जंचा तो तेल से फ्राई भी कर डाले.अरे भाई,भर्ता...! अब ये अलग बात है कि ८० रुपये लीटर वाला सरसों का तेल नहीं मिला तो जल्दबाजी में गाड़ी के पेट्रोल से ही काम चला लिए.अजी,पेट्रोल फ़िर भी ५० रुपये लीटर है.तो खैर,अख़बार में पढे तो हमारे शौक को पर लग गए.पहली बात तो ये कि इस मामले की सुनवाई जिस अदालत में होनी थी वो मेरे कमरे के पास में ही था और दूसरा ये कि मामला दो हाई प्रोफाईल घरानों का था तो कुछ हाई प्रोफाईल लोगों को अपनी नंगी आंखों से देखने का मौका भी मिल जाएगा,वैसे भी किसी को नंगी हालत में देखने के बाद उससे मेल जोल बढ़ाना आसान हो जाता है.दूसरे दिन हम भी नहा धोकर क्रीम-पावडर पोत कर पहुँच गए अदालत.. अदालत की करवाई शुरू हुई.........दोनों राजकुमार,मुलजिम बने अदालत में खड़े थे,कसम से हम तो बस उन भोले भाले राजकुमारों को ही निहारने में लगे थे.अजी,घर में काँटा चम्मच से खाने और नैपकिन से मुंह पोंछने वालों को लोहार्गिरी नहीं जंचती न.ये दोनों तो समाज के हाशिये पर आ चुके बेचारे लोहारों के रोजी रोटी से ही खिलवाड़ करने लगे थे.सो,सजा तो मिलनी ही थी. ज्योंही जज साहब ने राजकुमारों को ताउम्र वनवास का फैसला सुनाया,दोनों राजकुमारों के गोरे चेहरों पर सफ़ेद आभा झलकने लगी.राजकुमारों के वनवास की बात सुनकर माताएं रो पड़ीं,उधर, शहीद प्रेमी की माँ और भाई अपनी गौरवमय खुशी छुपाने के लिए एक दूसरे को आलिंगनबद्ध कर लिए.बड़ा ही इमोशनल सीन क्रिएट हो गया था. तबतक बाहर से शोर आने लगी,...जिन्दाबाद,...मुर्दाबाद.... राजकुमारों के चाहने वाले अदालत के बाहर नारेबाजी करने लगे(एकदम से रामायण के वनवास का दृश्य स्मरण हो आया.) इसी बीच,चकमक चकमक करके फोटो शेषन शुरू हो चुका था,लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ अपनी मजबूत पहुँच प्रदर्शित करने में लगा था,रह रह कर फोटो शेषन के बीच में एक घुटी सी आवाज गूंज उठती-"यह एक राजनीतिक साजिश है,सियाशी कारणों से हमें फंसाया जा रहा है." कैमरे के फ्लैश अब भी चमक रहे थे,और इस तरह एक बड़े लोकतंत्र का हिस्सा बनते हुए भारी मन से मैं अपने कमरे का रुख कर चुका था.

आलोक सिंह "साहिल"

मंगलवार, 3 जून 2008

इंडिया शायिनिंग...

इंडिया शायिनिंग...
इंडिया शयिनिंग,शयिनिंग इंडिया बहुत सुन रहे थे।सोंचें हम भी देखें।अजी! हम,इंडिया के एक सजग नागरिक हैं,हमारा तो कर्तव्य है कि हर शयिनिंग के विषय में जानें,पर कहीं नहीं दिखा,आप यकीं नहीं मानेंगे,इसी शयिनिंग को देखने के चक्कर में चश्मा तक लगा लिए पर यह प्रयास भी असफल।अलबत्ता,सेंसेक्स के पर लगते जरुर देखे।एक बात और हुई,तो क्या हुआ कि आज भी हमारे देश में तकरीबन ३५ करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर करते हैं,पर हमारे इंडिया के ही मुकेश अम्बानी कुछ दिनों तक विश्व के सबसे आमिर आदमी बने रहे,पर तब भी संतोष नहीं हुआ।
तब तक बारी आ गई थी,महंगाई की। ठेलमठेल महंगाई बढ़ी।हमेशा की तरह हमारे जननायक कामरेड साथी और विपक्षी दलों ने हो हल्ला मचाना शुरू कर दिया सरकार की नाक में ।तथाकथित तौर पर दम कर दिया(पता नही लोग नाक में कैसे दम कर लेते हैं?)।पर कुशलता देखिये स्वभावतः ठस वित्त मंत्री जी की ,एक सधा सा वक्तव्य जारी कर दिए। "ये महंगाई सिर्फ़ भारत की समस्या नहीं है,वरन पूरे विश्व की समस्या है।अमेरिकी सब प्राइम संकट का असर है।वैश्विक मार्केट में कच्चे तेल व अनाज के दामों में घोर तेजी के कारण महंगाई बढ़ी है।"अंत में थोड़ा सा छुआ भी दिए-"वैसे,सरकार प्रयास कर रही है।सरकार के पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि एकबार घुमाया और महंगाई गायब,महंगाई है तो जाते जाते ही जायेगी।"
इसी तरह की कुशल लफ्फाजी हमारे मनोहारी पीएम् मनमोहन जी ने भी की।ओजी! सब कहते हैं तो इनका कहना भी बनता है।
खैर,हटायिये।ये सब राजनितिक बातें हैं,हम शरीफों का राजनीति से क्या लेना-देना?पर एक बात तो तय है कि जब यही यूपीए विपक्ष में होगी तो ठीक वैसे ही हंगामा करेगी जैसे अभी के विपक्षी कर रहे हैं,और हाँ एक बात और कामन होगी कि तब भी हमारे सर्वप्रिय कामरेड सुर में सुर मिला रहे होंगे।
माफ़ कीजिएगा, विषयांतर हो गया,शुरू कहाँ से किए थे कहाँ पहुँच गए?
जी हाँ,तो हम बात कर रहे थे इंडिया शयिनिंग की तो बहुत धुन्धे पर कहीं नहीं दिखा।सच कहें तो हम हताश ही हो चले थे कि यार! सभी को नजर आता है,हम क्या किसी और दुनिया से आए हैं जो हमें नजर नहीं आती।अब तो समाज में चश्मा पहनकर चलने से भी गुरेज करने लगे कहीं कोई दुखती रग पे हाँथ न रख दे।तभी,नजर पड़ी कुछ ख़बरों पर।
आप भी देखिये- पिछले दिनों वैश्विक महंगाई पर बोलते हुए अमेरिकी विदेश मंत्री कोंदालिजा राईस ने कहा-"भारत का मध्य वर्ग अब दोनों जून भर पेट खाने लगा है,इसीलिए विश्व मार्केट अनाज की कीमतें बढ़ी हैं।" अरे ई क्या अचम्भा? हम तो चौंक ही गए तब तक दूसरी ख़बर भी देख लिए-
अमेरिकी राष्ट्रपति बुश ने कहा-"भारत का मध्यवर्ग ३५ करोड़ से ज्यादा है जो कि कुल अमेरिकी आबादी के लगभग बराबर है।इनके जीवन शैली में प्रगति के कारण अनाज की खपत बढ़ी है।यही कारण है कि महंगाई ग्लोबल लेवल पर बढ़ रही है।"
ओह माय गाड!ओह माय गाड!
खुशी के मारे आंखो से बरबस आंसू निकल पड़े।
जब विश्व के सबसे शक्तिशाली देश का राष्ट्रपति हमारे प्रगति का लोहा मान रहा है तो सचमुच हम shine कर रहे हैं,अब मन में कोई संशय नही रह गया, और जहाँ तक बात है महंगाई,लूटपाट,बम धमाके,हत्या रेप.....कि तो ये तो हर जगह होता है,वैसे भी ये सब बड़े आदमियों के शगल हैं।
मैं,आत्मग्लानि और शर्म से मरा जा रहा था,अपना नाकाबिल चश्मा उतार कर तुरंत फेंका और मुंह छुपाये हुए चल दिया अपने एयर कन्दिशंद बेडरूम में सोने ताकि एसी की ठंडक में मैं ख़ुद भी महसूस कर सकूं,..........इंडिया'ज शयिनिंग॥

आलोक सिंह "साहिल"

रविवार, 1 जून 2008

सियासत के कुत्ते......
हमारा एक बड़ा प्यारा सा पड़ोसी है,यूं कहें कि भाई ही है,जो पाक साफ टॉप इतना है कि नाम ही है पाकिस्तान.
बेचारी वहाँ की जनता ने न जाने किस किस जन्म में और कितने कितने पुन्य किए कि उन्हें वहाँ पैदा होने या वहाँ रहने का सुअवसर मिला(किसी को भी उनके भाग्य से रश्क हो सकता है।)।इस देश का सबसे बड़ा सौभाग्य यह कि आजादी के ६० सालो बाद भी वहाँ लोकतंत्र कागज से बाहर आने की हिम्मत नहीं जुटा सका और वहाँ छाये रहे तो तथाकथित सुधारवादी विचारों के मुखिया।
पिछले ८-९ सालों से वहाँ कुछ ऐसा ही नजर चल रहा था,अभी हाल ही में जैसे तैसे तमाम तिकदम करके वहाँ एक सरकार बनी,तात्कालीन पाकिस्तानी राजनीति में भ्रष्टाचार के सबसे अधिक झूठे आरोपों से घिरे आफिस अली जरदारी और दूध के जले(दूध के धुले नहीं),नवाज शरीफ जैसे दो महान शख्सियतों के वैचारिक गठजोड़ से।
मित्रों,दुनिया का रंग भी कितना निराला,यहाँ सबका अपना टशन है,जरदारी का टशन था कि किसी तरह सत्ता पर काबिज होकर कुछ माल मुद्रा बनाया जाय(अरे भाई, इतने दिन जेल में चक्की पीसने का कुछ मुआवाज तो मिलना ही चाहिए),तो नवाज शरीफ का टशन कि बर्खास्त जजों को लाया जाय और मुशर्रफ को हटाया जाय। आपने वाली बात तो सुनी ही होगी...
"सियासत के ये कुत्ते हैं,न तेरे हैं न मेरे हैं"
यहाँ भी वही कहावत चरितार्थ हो गई।
बाजी लग गई जरदारी के हाँथ,पहली बात तो ये कि उनकी मरहम बेगम बेनजीर भुट्टो अमेरिका की राजदूत बनकर पाकिस्तान लौटी थी,अब उनके जाने के बाद किसी को तो राजदूत बनना ही था तो जर्दारी ने भुना लिया यह मौका,वैसे भी प्रिविलेज तो मिलना ही था। उधर अंदर ही अंदर मुशर्रफ से भी चाय पानी वाला हिसाब किताब फिट हो गया तो अब डर काहे का? दिखा दिए नवाज शरीफ को ठेंगा।बेचारे नवाज करें तो क्या? "हम थे जिनके सहारे,वो रहे न हमारे।" सो,शुरू कर दिया पढ़ना नमाज।अल्लाहो अकबर अल्लाह.....
शायद खुदा उनकी मदद करे!
आमीन

आलोक सिंह "साहिल"

शनिवार, 31 मई 2008

एक वाकया,कुछ अजीब सा

एक वाकया,कुछ अजीब सा
पिछले दिनों एक प्रवेश परीक्षा का फॉर्म जमा करने जाना था।चूँकि फॉर्म दिल्ली में ही जमा करना था,इसलिए अल्हदिपने में ढेरों दिन आज कल करते हुए कट गए।पर उस दिन तो फॉर्म जमा करने का अन्तिम दिन था,ये सोचकर अपने अल्हादी मन को थोड़ा समझाया और चल दिया फॉर्म जमा करने।एक तो अन्तिम दिन और उपर से समय भी ४ बजे तक तो बेचैनी तो होनी ही थी।
खैर,नहा धोकर तैयार हुआ,माता जी के तस्वीर को नमन किया और निकल पड़ा।रिक्शा पकड़ा और मेट्रो के लिए बढ़ लिया(actually,आजकल दिल्ली का बड़े शानदार तरीके से विस्तार हो रहा है,यहाँ low floor buses चलने लगी हैं,मेट्रो ने भी अपना जाल फैलाना शुरू कर दिया है।जो भी दिल्ली आता है,उसकी एक ख्वाहिश यह जरुर रहती है कि कम से कम मेट्रो में तो चधेंगे ही।वो जी,हम तो दिल्ली में ही रहते हैं तो भला ये सुनहरा मौका क्योंकर छोड़ देते(असल में इतना अल्हादी हूँ कि महीने २ महीने में एक आध बार ही अपने मोहल्ले से निकल पाता हूँ))।हम मेट्रो पकड़ने कि ताक में रिक्शे की सवारी कर रहे थे यद्यपि मेरे कमरे के सामने से ही बसें वहाँ तक जाती हैं जहाँ तक मुझे मेट्रो से जाना था।लेकिन भाई,मेट्रो की तो बात ही कुछ और है )।रिक्शा अभी कैंप पहुँचा(बताते चलें कि कैंप एरिया में मेट्रो का निर्माण कार्य चल रहा है।मेट्रो वालों ने ६० फीट के सड़क को टीन की दीवारों से घेरकर १६ फीट का कर दिया है।)
जी हाँ तो हम कैंप पहुंचे ,सुबह का समय था,भयंकर भीड़,स्कूली बच्चों को ले जाने वाली छोटी बड़ी गाडियाँ,रिक्शे,आफिस जाने वालों की भीड़ और तफरी करने वाले ढेरों लोग(actually,भीड़ में देखने को शानदार चीज़ें मिल जाती हैं,सभी आयुवर्ग के लिए )।अब तो हम भी अपने रिक्शे सहित भीड़ में हो लिए थे.दांये बांये कि संकरी सडकों (टीन कि घेरेबंदी के कारण ) पर गाड़ियों का हुजूम,एक तरफ़ हम थे और बचे अन्तिम तरफ़ का हाल भी काफ़ी कुछ हमारे जैसा .
अच्छा खासा शोरगुल था।कहीं पी पी....कहीं टें टें...तो कहीं खर्र खर्र... और कभी कभी हमारे जैसे पढे लिखे बुद्धिजीवियों(जो जाम में फंसे थे) द्वारा मर्यादित भाषा में वेदवाक्यों का वाचन,पूरा माहौल भक्तिमय था।ऐसे में मानो red light ने भी अनशन कर रखा था कि अनशन तभी तोड़ेंगे जब दिल्ली की पूरी जनता मेट्रो में सफर करने लगेगी।
जैसाकि मैंने कहा,बहुत देर हो रही थी,सोंचा कि चलो,चलती सड़क को ही पार कर लेते हैं।रिक्शे वाले को १० का नोट थमाया और हीरो की माफिक भीड़ को चीरते हुए आगे निकल आए,मुझे देख कुछ और युवाओं को भी अपनी जवानी का एहसास हुआ(बता देना जरुरी है कि मैं भी अच्छा खासा जवान हूँ,अब कृपा करके "अच्छे खासे" का मतलब मत पूछिएगा)।आखिरकार हमलोग देश के भविष्य है,जब पी एम्, सी एम् के लिए यातायात ठप हो सकता है तो हमारे लिए क्यों नहीं।आगे पीछे देखते हुए हम बीच सड़क पर पहुंचे।तब तक दाहिने से एक कार हमारी तरफ़ बढ़ी,सच कहें तो एक पल के लिए वीरगति प्राप्त करने टाइप की फीलिंग होने लगी थी,संयोग से ड्राईवर समझदार था,मेरे फौलादी जिस्म से पंगा न लेते हुए,स्टाइलिश अंदाज में कट मारते हुए आगे बढ़ गया(ज़माने बाद मुझे अपनी जवानी का एहसास हुआ)।अभी यह हुआ ही कि एक रिक्शा तेजी से मेरी तरफ़ बढ़ा,मेरा जोश उमड़ पड़ा,सनी दयोल अन्दल में आंखों में खून लिए उसकी तरफ़ अपना हाँथ उठाया तो बेचारा रिक्शा वाला चोंईई...ई....की आवाज के साथ रुक गया(जैसे पल्सर में डिस्क ब्रेक लगाने पर होता है)।
इतने में ही red light महोदय वादा खिलाफी करते हुए अपना अनशन तोड़ दिए।बड़ी विडम्बना,एकाएक आगे और पीछे का अथाह भीड़ अपने वाहन समेत सड़क को रौंदने टूट पड़ा(जैसे गुड के टुकड़े पर भुक्खड़ छींटे चारों तरफ़ से जूझते हैं)। बड़ी मुश्किल हुई,हम तो बुरे फंसे। अचानक एक मोहतरमा(२३,२४ की रही होंगी) पीछे से हार्न मारते हुए अपनी स्कूटी दौडा दीं,आगे रिक्शा वाला था,तेजी इतनी थी कि balence बिगड़ गया और उन्होंने रिक्शे को टक्कर दे मारी।फ़िर क्या था,स्कूटी एक तरफ़ गिरी और मोहतरमा दूसरे तरफ़।गनीमत यह रही कि घटना होते ही आने जाने वाले लोग जहाँ के तहां थम गए(दिल्ली जैसे सभी शहर में ऐसा कम ही होता है)।शायद बहुत सारी चीजों का साक्षी बनते बनते रह गया ।मेरी तो साँसे ही मानो थम गई थीं। इधर स्कूटी और रिक्शे के बीच में फंसे हमारे एक युवा साथी बीच सड़क चारों खाने चित हो गए,लेकिन तुरंत अपनी मर्दानगी का ख्याल करते हुए फुर्ती से उठे और दांये बांये देखे बगैर आगे हो लिए।
मेरे लिए भी मौका था,मैं एक सभ्य और जिम्मेदार शहरी की भांति सीन से गायब हो गया। शायद मोहतरमा को गंभीर चोट आई होगी,पर समय किसके पास था(और वैसे भी रह कर भी क्या कर लेते?उल्टे दो चार मासूम हाँथो के भागी बनते)। हमे तो फॉर्म जमा करना था।
इस हादसे से मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ा,हाँ एक बात जरुर हुई तत्क्षण मेरा मेट्रो से जाने का मोह भंग हो चुका था और मैं बस में बैठे बैठे मोहतरमा के बारे में सोंच रहा था,कैसी होगी बेचारी?(अरे भाई,व्यस्त हुआ तो क्या हुआ,इंसानियत मेरे अंदर भी है)।
खैर,इन सब के बावजूद मैं अपने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम से ३,४ मिनट की देरी से था(इंडिया में ३,४ मिनट का मतलब कुछ नहीं होता,यहाँ तो कोई भी कार्यक्रम ३,४ घंटे से कम देरी से शुरू ही नहीं होता)।

आलोक सिंह "साहिल"

शुक्रवार, 30 मई 2008

हद है शराफत की,कि.....

हद है शराफत की,कि.....

मुझे जहाँ तक याद है,शायद मई २००५ की २९ तारीख थी।फ़िल्म काल का फर्स्ट डे,फर्स्ट शो था,मैं ब्लैक टिकट लेकर फ़िल्म देखने पहुँचा।क्रेज जो इस फ़िल्म से जुडा था कि इसमे मेरे शाहरुख़ ने डांस(आईटम) किया है।खैर,फ़िल्म शुरू हुई,फ़िल्म के शुरुआत में ही शाहरुख़ ने जालीदार बनियान में जो धमाल मचाना शुरू किया तो मैंने अपना माथा पीट लिया,सच कहूँ तो मैं बहुत आहत हुआ था।
"क्या रे शाहरुख़,कितना गन्दा दिख रहा है तू?" यही बात मेरे मन में आई थी।तब मैं शायद उतना परिपक्व नहीं था, बाद में महसूस हुआ(कुछ दोस्तों ने बताया)।ऐसा नहीं कि उसके पहले किसी हीरो ने ऐसा नहीं किया था,सलमान आदि का पेशा ही इसपर चलता था,पर बात थी पूरे देश के सबसे पारिवारिक और चहेते चेहरे की।जिसपर हर परिवार आँख मूंदकर विश्वास करता था।
इसके बाद समय चक्र बढ़ता गया,अब सलमान,शाहरुख़ ही नहीं कुछ एक को छोड़कर आजकल का लगभग हर हीरो ऐसा करने लगा है।
बात असल यह नहीं है की आजकल के हीरोज फिल्मों में आईटम करते हैं,बात कुछ और है,पहली यह कि क्या आजकल के फिल्मकार फ़िल्म बेचने के सहज तौर तरीके भूल गए हैं?दूसरी ये कि क्या आजकल के फ़िल्म स्टार अपनी अदाकारी के बूते पैसा और शोहरत कमाने में नाकाम होने लगे हैं?
शायद इसका जवाब नकारात्मक ही होगा।तो फ़िर क्यों?
आप कहेंगे कि पहले की फिल्मों में भी आईटम होता था,तो वे मूलतः हीरोइनों पर फिल्माए जाते थे,कारण कि आज भी बालीबुड की ९५ फीसदी फिल्मों में हीरोइनों के लिए नाचने गाने और शरीर दिखाने के अलावा कुछ नही होता,तो उनके रोजी रोटी की बात समझ में आती है।पर क्या मज़बूरी है हमारे स्टार हीरोज की? वे तो पहले ही फिल्मों से करोड़ों कमा रहे हैं।
तर्क दिए जा सकते हैं की वे वही करते हैं जो लोग देखना पसंद करते हैं,सिर्फ़ यही बिकता है।मैं इससे सहमत नहीं हूँ,क्योंकि अगर ऐसा होता तो दीनो मोरिया टाइप के हिरोज की सभी फिल्में ब्लास्टर हिट होतीं।अजी दर्शक भी तो वही देखेगा न जो उसे दिखाया जाएगा।
शायद आजकल के हिरोज ख़ुद को सबकुछ करते देखना चाहते हैं।यही कारण है कि उन्होंने अपनी मर्यादा और दर्शकों की भावनाओं का जमकर दोहन करना शुरू कर दिया है।क्योंकि वे रील के हीरो हैं रियल के नहीं।गलती आम दर्शकों की है जो हीरोज से बड़ी बड़ी अपेक्षाएं रख लेते हैं।पर
क्या इन अपेक्षाओं की सजा इतनी भयंकर कि अपने पसंदीदा स्टार को नंगी छोकरियों के बीच में तलाशना पड़े?
हद है शराफत की,कि नाम ही शराफत है....

आलोक सिंह "साहिल"

क्यों ना मैं पत्रकार बन जाऊँ

Tuesday, 13 May 2008
क्यों ना मैं पत्रकार बन जाऊँ
बहुत भाता मुझे नेताओं के पीछे मंडराना
चाहता हूँ मैं भी किसी के बेडरूम की फिल्में बनाना
क्रिकेट भी जानता हूँ,
खली को भी पहचानता हूँ,

भाते हैं मुझको राखी के नखरे,
करते हैं तंग क्यों मल्लिका को छोकरे,
भूत प्रेत के ढेरों मंतर हैं आते,
सेक्स के सीडीज मुझको भी भाते पसंद है
मुझको भी करना कास्टिंग काउच
बेंच सकता हूँ ख़बरों को
लगाकर नमक मिर्च
कर सकता हूँ
मैं भी फर्जी स्तिंग्स
तो क्यों न मैं पत्रकार बन जाऊं

शिल्पा से योग के राज पूछना चाहता हूँ ,
करीना और सैफ के
पीछे पीछे भागता हूँ काले
हैं क्यों बाबा रामदेव के बाल?
पिटती जब कैट तो मचता क्यों बवाल?
गुस्से में तनु क्यो होती है लाल?
आते हैं मुझको ऐसे ढेरों सवाल
टू बन जाऊँ मैं भी खोजी पत्रकार

धोनी के बाल क्यों लगते हैं सेक्सी?
यूवी को दीपिका ने पहनाई क्यों टोपी?
गिल को गिल से क्यों है ऐतराज?
दफ़न हैं ऐसे ही ढेरों दिल में राज
किसका है तुमको अब इन्तजार?
अब तो बना दो न मुझको पत्रकार

आलोक सिंह "साहिल"

मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

बेटी

माँ तुम्हारी कोख में मैं पल रही हूँ,
तेरी रंगत रूप में मैं ढल रही हूँ.
सोंचती हूँ मैं हूँ खुशियों का सितारा,
वार देगी मुझपे अपना प्यार सारा।

प्यार देती चाहे कोई दगा भी देता,
प्यार से कोई गले लगा तो लेता।
क्या पता था तेरी चाहत और कोई,
पैदा होते ही अपना अस्तित्व खोई।
माँ मैं तेरे ही शरीर का एक टुकडा,
सुन सकूंगी तेरा मैं हर एक दुखडा।
मैं हूँ बेटी तेरी चाहत एक बेटा,
प्यार से कोई गले लगा तो लेता।
अब मेरा दुनिया में आना हो गया है,
क्यों हर एक अपना बेगाना हो गया है?
है नहीं तुझको मेरा जीना गंवारा,
शून्य में ही ठीक थी मुझे क्यों पुकारा?
मुझ कलि से आँगन अपना सजा तो लेता,
प्यार से कोई गले लगा तो लेता।

तू भी तो है एक बेटी आज माँ है,
फ़िर तेरी गमगीन क्यों ये आशियाँ है?
क्या तेरी ममता भी झूठी हो गई है?
स्नेह की गंगा भी सूखी हो गई है,
मेरे रागों स्वर को कोई गा भी लेता,
प्यार से कोई गले लगा तो लेता।
अश्वनी गुप्ता

बुधवार, 12 मार्च 2008

पालने में झूलता एक माँ का टुकडा

दोस्तो कहते हैं किसी भी इन्सान को एक ही जन्म मिलता है,चाहे कुछ भी क्यों न करना हो,बड़े बुजुर्ग कहते हैं ,इन्सान अगर चाहे तो इस एक ही जन्म मी बहुत कुछ कर सकता है,नए नए आयाम स्थापित कर सकता है,पर क्या माँ के कर्ज को भी चुका सकता है,शायद नहीं,कभी नहीं,चाहे इन्सान एक से भी अधिक जन्म ले ले. पर माँ जो होती है दुनिया की सबसे stipid प्राणी होती है,उसे कुछ नहीं चाहिए होता है अपने लाल से,बच्चा कितना भी बदमाशी करे,कितना भी तंग क्यों न करे माँ हरदम उसकी हर एक बदमाशी को अपने आँचल से ढक लेती है, कितनी अजीब होती है माँ,पर जब वही बच्चा चला जाता है तो माँ पर क्या गुजरती है........ आज मेरे दोस्त अश्वनी की कविता मैं प्रकाशित कर रहा हूँ,जो माँ के इसी दर्द को बयां करती है.

पालने में झूलता एक माँ का टुकडा
इन सितारों से है आया एक फरिश्ता
जिसके दिल से बन गया है दिल का रिश्ता
सोचती है उसको कोई कष्ट न हो
रूठे सारी दुनिया पर वो रुष्ट न हो,
अपने जीवन का समझती है सहारा,
यही है बुढापे की लाठी,
राजदुलारा सूर्य से भी तेज है ये प्यारा मुखड़ा
पालने में झूलता......
उसकी हर एक जिद को मंजूर करती थी
भूखी रहती थी पर उसका पेट भरती थी
सोचती थी रोशन ये मेरा नाम करेगा
उसे क्या पता था वो बुरे काम करेगा
सारा सपना टूट कर अब चूर हो गया
माँ का टुकडा माँ के दिल से दूर हो गया
उखडी उखडी साँसे हैं और मन भी उखडा
पालने में झूलता..........................
आंसुओं के धार को वह पोंछती है
उसकी मैय्यत में खड़ी अब सोचती है
काश! फिरसे झूलता उस पालने में
कितनी मेहनत कर दी उसको ढालने
में काश! उसके दिल में कोई पाप न हो
पालने में ही रहे कभी खाक न हो
यह तमन्ना थी या है एक माँ का दुखडा
पालने में झूलता..............
अश्वनी कुमार गुप्ता

सोमवार, 10 मार्च 2008

मेरी माँ

पैदा भी नहीं हुआ था, तबसे मुझे जानती है मेरी माँ,बताती हैं नानी-दादी छींक से पहले ही नाक पोंछ देती थी,दर्द हो मुझको तो वो रात भर रोती थी,बोझ मेरे सर का उठती थी, मेरी माँ
होश आया तो देखा,ख़ुद जागकर मुझे सुलाती है,पेट भरे न उसका मुझे पेट भर खिलाती है,मेरी माँ
फटे चिथदों से चलें काम उसका,मुझे राजकुमार सा सजाती है,मेरी माँ कभी आंधी कभी तूफ़ान,कभी बाढ़ कभी सूखा,तंग हालातों में भी खुशियाँ झल्काती है, मेरी माँ
कुछ बड़ा हुआ,अपने पैरों पर खड़ा हुआ....देखाहम हो सकें काबिल,खातिर इसकीअपना अस्तित्व भी भुला चुकी है,मेरी माँ
अब मैं अच्छा बुरा समझता हूँ,अपने हितों के लिए दुनिया से लड़ता हूँ,फ़िर भी मैं खुश रहूँ,खातिर इसकीमत्थे टेकती रहती है,मेरी माँ
याद आती है बचपन के जन्नत, और परियों की कहानी,तो पाता हूँ,वही तो थी,मेरी माँ
माँ! मैं आज तुमसे दूर हूँ,तेरे आँचल को महरूम हूँ,फ़िर भी तेरी स्नेहिल छाया मानो जादू की झप्पी देने आ जाती है,चाहूँ न चाहूँ तेरी कमी तदपा जाती है
जी करता है तुझे धन्यवाद करूँ,तेरे चरणों मे गिरकर दो आंसू धरूँपर...कहीं तू अपमानित तो नहीं होगी,तेरी महिमा कहीं खंडित तो नहीं होगी
माँ! आज मैं बहुत परेशान हूँ,दुनिया के झमेले में खड़ा अकेला हैरान हूँ,बता मैं क्या करूँ?चाहता हूँ रो पडूं,पर मन्नौअर कहते हैं -माँ के सामने रोया नहीं करते साहिल,जहाँ बुनियाद हो वहाँ नमी अच्छी नहीं होती
माँ! आज मैं सोंचता हूँ तो अचंभित हो जाता हूँ,कितना दुष्कर है इंसान का दैवीय हो जाना,जैसी तुम हो,मेरी माँअब भी तेरे स्नेह का भूखा,तेरा लाल, मेरी माँ